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ब्रह्मविहारनिद्देसो
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निक्खिपति, तेन तेन सन्तिके मरणस्स होती" ति तं जनो करुणायति । एवमेव करुणाकम्मट्ठानिकेन भिक्खुना सुखितो पि पुग्गलो एवं करुणायितब्बो-"अयं वराको किञ्चापि इदानि सुखितो सुसञितो भोगे परिभुञ्जति, अथ खो तीसु द्वारेसु एकेना पि कतस्स कल्याणकम्मस्स अभावा इदानि अपायेसु अनप्पकं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदिस्सती" ति।
५४. एवं तं पुग्गलं करुणायित्वा ततो परं एतेनेव उपायेन पियपुग्गले, ततो मज्झत्ते, ततो वेरिम्ही–ति अनुक्कमेन करुणा पवत्तेतब्बा।
सचे पनस्स पुब्बे वुत्तनयेनेव वेरिम्हि पटिघं उप्पजति, तं मेत्ताय वुत्तनयेनेव वूपसमेतब्बं । यो पि चेत्थ कतकुसलो होति, तं पि आतिरोगभोगब्यसनादीनं अञ्जतरेन ब्यसनेन समन्नागतं दिस्वा वा सुत्वा वा तेसं अभावे पि वट्टदुक्खं अनतिक्कन्तत्ता "दुक्खितो व अयं" ति एवं सब्बथा पि करुणायित्वा वुत्तनयेनेव-अत्तनि, पियपुग्गले, मज्झत्ते, वेरिम्ही ति चतुसु जनेसु सीमासम्भेदं कत्वा तं निमित्तं आसेवन्तेन भावेन्तेन बहुलीकरोन्तेन मेत्तायं वुत्तनयेनेवर तिकचतुक्कज्झानवसेन अप्पना वड्डेतब्बा।
अङ्गुत्तरट्ठकथायं पन "पठमं वेरिपुग्गलो करुणायितब्बो, तस्मि चित्तं मुदुं कत्वा है, महाभोगवान् है'-ऐसा तो कोई नहीं मानता। इसके विपरीत, "यह अभागा अब मर जायेगा, यह ज्यों ज्यों एक एक पद रखता है, मृत्यु के समीप होता जाता है"-ऐसा सोचकर करुणा करता है। इस प्रकार करुणा को कर्मस्थान बनाने वाले भिक्षु को सुखी (किन्तु पुण्यसञ्चय न करने वाले) व्यक्ति के प्रति यों करुणा उत्पन्न करनी चाहिये-"यद्यपि यह अभागा, अभी सुखी है...भोगों का परिभोग कर रहा है, किन्तु तीनों द्वारों में से एक से भी पुण्यकर्म न करने से कुछ ही देर बाद (मृत्यु के बाद) अपायों (नरक आदि योनियों) में अकथनीय दुःख एवं दौर्मनस्य का अनुभव करेगा।"
४४. यों उस व्यक्ति पर करुणा करने के बाद, इसी प्रकार से प्रिय व्यक्ति पर, फिर मध्यस्थ पर, फिर वैरी पर-यों करुणा करनी चाहिये।
यदि इसे पूर्वकथित प्रकार से ही (पीछे पृष्ठ-१५१) वैरी के प्रति द्वेष उत्पन्न होता हो, तो उसे मैत्री (-भावना) के प्रसङ्ग में कथित प्रकार से ही शान्त करना चाहिये। एवं जो यहाँ कुशल (कर्म) करने वाला होता है, उसके प्रति भी यह देखकर या सुनकर कि यह ज्ञाति, रोग, भोग, व्यसन आदि में से किसी न किसी व्यसन से युक्त है, अथवा इनके अभाव में भी (संसार) चक्ररूपी दुःख का अतिक्रमण तो नहीं ही किया है, "यह दुःखी ही है"-यों सर्वथा करुणा करे। कहे गये प्रकार से ही-स्वयं, प्रिय व्यक्ति, मध्यस्थ, वैरी-यों चारों जनों के प्रति सीमा का अतिक्रमण करते हुए उस निमित्त का अभ्यास, भावना, बार बार अभ्यास करने वाले को मैत्रीप्रकरण में पूर्वोक्त प्रकार से ही त्रिक या चतुष्क ध्यान के अनुसार अर्पणा का वर्धन करना चाहिये।
किन्तु अङ्गुत्तरट्ठकथा में यह क्रम बतलाया गया है-"पहले वैरी व्यक्ति पर करुणा करनी १. एतेनेव उपायेना ति। येन विधिना एतरहि यथावुत्ते परमकिच्छापन्ने आयतिं वा दुक्खभागिम्हि पुग्गले ___करुणायितुं करुणा उप्पादिता, एतेनेव नयेन। २. मेत्ताभावनाकथायं १५१ पिढे वुत्तेन नयेन।