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ब्रह्मविहारनिद्देसो
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"कथं च भिक्खु मुदितासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति? सेय्यथापि नाम एक पुग्गलं पियं मनापं दिस्वा मुदितो अस्स, एवमेव सब्बे सत्ते मुदिताय फरती" (अभि० २। ३३०) ति।
४७. सचे पिस्स सो सोण्डसहायो वा पियपुग्गलो वा अतीते सुखितो अहोसि, सम्पति पन दुग्गतो दुरुपेतो, अतीतमेव चस्स सुखितभावं अनुस्सरित्वा "एस अतीते एवं महाभोगो महापरिवारो निच्चप्पमुदितो अहोसी" ति तमेवस्स मुदिताकारं गहेत्वा मुदिता उप्पादेतब्बा। "अनागते वा पन पुन तं सम्पत्तिं लभित्वा हत्थिक्खन्ध-अस्सपिट्ठि-सुवण्णसिविकादीहि विचरिस्सती" ति अनागतं पिस्स मुदिताकारं गहेत्वा मुदिता उप्पादेतब्बा।
४८. एवं पियपुग्गले मुदितं उप्पादेत्वा, अथ मज्झत्ते, ततो वेरिम्ही ति अनुक्कमेन मुदिता पवत्तेतब्बा। सचे पनस्स पुब्बे वुत्तनयेनेव वेरिम्हि पटिघं उप्पज्जति, तं मेत्तायं वुत्तनयेनेव वूपसमेत्वा इमेसु च तीसु अत्तनि चा ति चतूसु समचित्तताय सीमासम्भेदं कत्वा तं निमित्तं आसेवन्तेन भावेन्तेन बहुलीकरोन्तेन मेत्तायं वुत्तनयेनेव तिकचतुक्कज्झानवसेन अप्पना वड्डेतब्बा। ततो परं “पञ्चहाकारेहि अनोधिसो फरणा, सत्तहाकारेहि ओधिसो फरणा, दसहाकारेहि दिसाफरणा" ति अयं विकुब्बना, "सुखं सुपती" ति आदयो आनिसंसा च मेत्तायं वुत्तनयेनेव वेदितब्बा ति।
अयं मुदिताभावनाय वित्थारकथा ॥
"और भिक्षु किस प्रकार मुदितायुक्त चित्त से एक दिशा को व्याप्त कर साधना करता है? जैसे किसी प्रिय, अभिष्ट व्यक्ति को देखकर प्रसन्न हो, ऐसे ही सब सत्त्वों को मैत्री का आलम्बन बनाता है।" (अभि० २/३३०)।
४७. यदि उसका घनिष्ठ मित्र या प्रिय व्यक्ति बीते समय में सुखी रहा हो किन्तु इस समय दुर्गतिग्रस्त, भाग्यहीन हो, तो भी उसके अतीत सुखी भाव का स्मरण करते हुए “यह भूतकाल में ऐसा महाभोगवान्, महापरिवारवाला, नित्यप्रमुदित रहा करता था"-यों उसके उस मुदितरूप को ही ग्रहण कर मुदिता उत्पन्न करनी चाहिये। अथवा "भविष्य में पुन: उस सम्पत्ति को पाकर हाथी के कन्धे, घोड़े की पीठ, सोने की पालकी आदि पर बैठेगा"-यों इसके भावी मुदित रूप को भी ग्रहण कर मुदिता उत्पन्न करनी चाहिये।
४८. यों प्रिय व्यक्ति के प्रति मुदिता उत्पन्न करने के बाद मध्यस्थ के प्रति, फिर वैरी के प्रति-यों क्रम से मुदिता भावना उत्पन्न करनी चाहिये। यदि इसे पूर्वोक्त प्रकार से ही वैरी के प्रति प्रतिघ उत्पन्न होता है, तो मैत्री भावना में बतलाये गये ढंग से ही उसे शान्त कर, इन तीनों और स्वयं को लेकर चारों के प्रति समान भाव रखते हुए सीमा का अतिक्रमण करे एवं उस निमित्त का अभ्यास, भावना, (बार-बार अभ्यास) करते हुए मैत्री में बतलाये गये प्रकार से ही त्रिक एवं चतुष्क ध्यान के अनुसार अर्पणा की वृद्धि करनी चाहिये। इसके बाद "पाँच प्रकार से विभागसहित व्यापकता, दस प्रकार से दिशा-व्यापकता" इस रूप में बहुआयामी परिवर्तनशीलता एवं "सुखं सुपति" आदि गुणों को मैत्री में कहे गये प्रकार से ही जानना चाहिये।
यह मुदिता भावना की विस्तृत व्याख्या है।