________________
१७८
विसुद्धिमग्गो
दुग्गतो, ततो पियपुग्गलो, ततो अत्ता" ति अयं कमो वुत्तो । सो "दुग्गतं दुरुपेतं " ति पाळिया न समेति । तस्मा वुत्तनयेनेवेत्थ भावनं आरभित्वा सीमासम्भेदं कत्वा अप्पना वङ्केतब्बा । ततो परं, पञ्चहाकारेहि अनोधिसो फरणा, सत्तहाकारेहि ओधिसो फरणा, दसहाकारेहि दिसाफरणा ति अयं विकुब्बना, "सुखं सुपती" ति आदयो आनिसंसा च मेत्तायं वुत्तनयेनेव वेदितब्बा ति । अयं करुणाभावनाय वित्थारकथा ॥
३. मुदिताभावनाकथा
४५. मुदिताभावनं आरभन्तेनापि न पठमं पियपुग्गलादीसु आरभितब्बा । न हि पियो पियभावमत्तेनेव मुदिताय पदट्ठानं होति, पगेव मज्झत्तवेरिनो । लिङ्गविभाग - कालङ्कता अखेत्तमेव ।
४६. अतिप्पियसहायको पन सिया पदट्ठानं यो अट्ठकथायं सोण्डसहायो' ति वृत्तो । सो हि मुदितमुदितो व होति, पठमं हसित्वा पच्छा कथेति, तस्मा सो वा पठमं मुदिताय. फरितब्बो, पियपुग्गलं वा सुखितं सज्जितं मोदमानं दिस्वा वा सुत्वा वा "मोदति वतायं सत्तो, अहो साधु, अहो सुट्टू" ति मुदिता उप्पादेतब्बा । इममेव हि अत्थवसं पटिच्च विभङ्गे वुत्तं
चाहिये। उसके प्रति चित्त को मृदु बनाकर फिर दुर्गतिग्रस्त, फिर प्रिय व्यक्ति, फिर स्वयं के प्रति । " यह (कथन) "दुग्गतं दुरुपेतं" इस (उक्त १७६ पृ०) पालि (-पाठ) से सङ्गत नहीं है।
इसलिये उक्त प्रकार से ही यहाँ भावना का आरम्भ कर, सीमा का अतिक्रमण करते हुए अर्पणा को बढ़ाना चाहिये । तत्पश्चात् पाँच प्रकार से विभागरहित व्यापकता, सात प्रकार से विभागसहित व्यापकता, दस प्रकार से दिशा - व्यापकता रूपी बहुआयामी परिवर्तनशीलता, एवं "सुखं सुपति" आदि गुणों को मैत्रीप्रकरण में बतलाये गये प्रकार से ही समझना चाहिये ॥ यह करुणाभावना की विस्तृत व्याख्या है ॥
३. मुदिता भावना
४५. मुदिता भावना का आरम्भ करने वाले को भी पहले प्रिय व्यक्ति आदि के प्रति आरम्भ नहीं करना चाहिये; क्योंकि प्रिय 'प्रिय' होने मात्र से ही तो मुदिता का आसन्न कारण (पदस्थान) नहीं बन जाता। फिर मध्यस्थ एवं वैरी की तो बात ही क्या है ! लिङ्गविपरीतता एवं मृत होना तो यहाँ भी अग्राह्य (अक्षेत्र) है ही ।
४६. किन्तु ऐसा प्रिय मित्र पदस्थान हो सकता है, जिसे अट्ठकथा में शौण्ड सहायक कहा गया है। क्योंकि वह सदा मुदित ही रहता है। हँसता पहले है, बोलता बाद में है । इसलिये या तो पहले उसे मुदिता का आलम्बन बनाना चाहिये, या किसी प्रिय व्यक्ति को सुखी अलंकृत (सजा-धजा), आनन्द मानते हुए देख या सुनकर "यह व्यक्ति कितना मुदित है ! बहुत अच्छा, बहुत सुन्दर ! " - यों मुदिता उत्पन्न करनी चाहिये। इसी अभिप्राय से विभङ्ग में कहा गया है
१. सोण्डसहायो ति । अतिप्पियसहायो, न तु सुरापानसहायो ।
२. 'शौण्डसहायक' का शाब्दिक अर्थ है- मदिरापान में सहभागी मित्र । किन्तु यह अर्थ प्रस्तुत प्रसङ्ग में असङ्गत होने से यहाँ इसका अर्थ करना चाहिये - अतिप्रिय मित्र ।