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ब्रह्मविहारनिद्देसो
१५९ २०. खन्तिवादिजातके दुम्मेधेन कासिरञा "किंवादी त्वं, समणा?" ति पुट्ठो "खन्तिवादी नामाहं" ति वुत्ते सकण्टकाहि कसाहि ताळेत्वा हत्थपादेसु छिज्जमानेसु कोपमत्तं पि नाकासि।
२१. अनच्छरियं चेतं, यं महल्लको पब्बाजूपगतो एवं करेय्य । चूळधम्मपालजातके पन उत्तानसेय्यको पि समानो
"चन्दनरसानुलित्ता बाहा छिजन्ति धम्मपालस्स। दायादस्स पथब्या पाणा मे, देव, रुज्झन्ती" ति॥
(खु० नि० ३ : १/११७) एवं विप्पलपमानाय मातुया पितरा महापतापेन नाम रञा वंसकळीरेसु विय चतूसु हत्थपादेसु छेदापितेसु, तावता पि सन्तुटुिं अनापज्जित्वा 'सीसमस्स छिन्दथा' ति आणत्ते, "अयं दानि ते चित्तपरिग्गण्हनकालो। इदानि, अम्भो धम्मपाल, सीसच्छेदाणापके पितरि, सीसच्छेदके पुरिसे, परिदेवमानाय मातरि, अत्तनि चा ति इमेसु चतूसु समचित्तो होही" ति दळहसमादानं अधिट्ठाय पदुट्ठाकारमत्तं पि नाकासि।
२२. इदं चापि अनच्छरियमेव, यं मनुस्सभूतो एवमकासि। तिरच्छानभूतो पि पन छद्दन्तो नाम वारणो हुत्वा विसपोतेन सल्लेन नाभियं विद्धो पि ताव अनत्थकारिम्हि लुद्दके चित्तं नप्पदूसेसि।
"बुद्धिमान् पुरुष आशा रखे, निराश न हो। मैं स्वयं को ही देखता हूँ कि जैसा चाहा, वैसा हुआ॥" .
२०. खन्तिवादिजातक में काशी के दुर्बुद्धि राजा ने पूछा-"श्रमण, तुम्हारा वाद कौन सा है?" "मैं क्षान्तिवादी हूँ"-यों कहने पर कँटीले कोड़े से उसे पीट-पीट कर उसके हाथ पैर काट डाले गये, किन्तु उसने थोड़ा भी क्रोध नहीं किया।
२१. यदि एक वयस्क प्रव्रजित ऐसा करे तो आश्चर्य की बात नहीं है; किन्तु चूळधम्मपालजातक में शिशु के रूप में भी उन ने वैसा ही किया
__ "समस्त पृथ्वी के उत्तराधिकारी धर्मपाल की बाहें, जिन पर चन्दन का लेप किया गया है, कट रही हैं। हे देव! मेरे प्राण निरुद्ध हो रहे हैं।" (खु० ३:१/११७)
-यों माता विलाप करती रही। पिता ने, जो महाप्रताप नामक राजा थे, बाँस की कोपलों के समान चारों हाथ-पैरों को कटवा दिया। इस पर भी अन्त नहीं किया। इसका सिर काट डालो' यों आज्ञा दी। (बोधिसत्त्व ने) "अब तुम्हारे चित्त के नियन्त्रण का (वास्तविक) समय है। हे धर्मपाल, इस समय सिर काटने की आज्ञा देने वाले पिता, सिर काटने वाले पुरुष, विलाप करती माता और स्वयं-इन चारों के प्रति एक समान चित्त वाले बनो"-यों दृढ़ निश्चय कर, रञ्चमात्र भी द्वेष नहीं किया।
२२. यह भी आश्चर्य की बात नहीं है कि उन ने मनुष्य के रूप में ही ऐसा किया। पशु के रूप में भी उन ने, जब वह छद्दन्त नामक हाथी थे, नाभि में विष बुझा बाण मारे जाने पर भी, अपकारी व्याध के प्रति चित्त को द्वेषयुक्त नहीं किया। जैसा कि कहा है