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विसुद्धिमग्गो सब्बत्तताया ति। सब्बेसुं हीनमज्झिमुक्कट्टमित्तसपत्तमज्झत्तादिप्पभेदेसु अत्तताय। “अयं परसत्तो" ति विभागं अकत्वा अत्तसमताया ति वुत्तं होति।
अथ वा सब्बत्तताया ति। सब्बेन चित्तभागेन ईसकं पि बहि अविक्खिपमानो ति वृत्तं होति। सब्बावन्तं ति। सब्बसत्तवन्तं, सब्बसत्तयुतं ति अत्थो। लोकं ति। सत्तलोकं । विपुलेना ति। एवमादि परियायदस्सनतो पनेत्थ पुन मेत्तासहगतेना तिं वुत्तं । यस्मा वा एत्थ ओधिसो फरणे विय पुन तथा-सद्दो इति-सद्दो वा न वुत्तो, तस्मा पुन मेत्तासहगतेन चेतसा ति वुत्तं। निगमनवसेन' वा एतं वुत्तं-विपुलेना ति। एत्थ च फरणवसेन विपुलता दट्ठब्बा। भूमिवसेन पन एतं महग्गतं । पगुणवसेन च अप्पमाणसत्तारम्मणवसेन च अप्पमाणं । ब्यांपादपच्चत्थिकप्पहानेन अवरं । दोमनस्सप्पहानतो अब्यापझं। निढुक्खं ति वुत्तं होति । अयं 'मेत्तासहगतेन चेतसा' ति आदिना नयेन वुत्ताय विकुब्बनाय अत्थो।
३५. यथा चायं अप्पनाप्पत्तचित्तस्सेव विकुब्बना सम्पज्जति, तथा यं पि पटिसम्भिदायं-"पञ्चहाकारेहि अनोधिसोफरणा मेत्ता चेतोविमुत्ति, सत्तहाकारेहि ओधिसोफरणा मेत्ता चेतोविमुत्ति, दसहाकारेहि दिसाफरणा मेत्ता चतोविमुत्ती" (खु० नि० ५/३८०) ति वुत्तं, तं पि अप्पनाप्पत्तचित्तस्सेव सम्पजती ति वेदितब्बं ।
तत्थ च "सब्बे सत्ता अवेरा अब्यापज्जा अनीघा सुखी अत्तानं परिहरन्तु, सब्बे पाणा,
सर्वत्र ‘सब्बधि' आदि अविभाग को प्रदर्शित करने के लिये कहा गया है। इनमें, सब्बधि-सर्वत्र। सब्बत्तताय-सभी हीन, मध्य, उत्कृष्ट, मित्र, शत्रु, मध्यस्थ आदि प्रभेदों में स्वयं के लिये। अर्थात्, 'यह दूसरा व्यक्ति है' यों भेद न कर, स्वयं के समान।।
___अथवा सब्बत्तताय-सब सत्त्व वाले, सब सत्त्वों से युक्त। लोकं-सत्त्वलोक। विपुलेन-(विपुल से) यों प्रारम्भ होने वाले पर्यायों को दिखलाने के लिये यहाँ पुनः “मैत्रीयुक्त से"-ऐसा कहा गया है। अथवा "मैत्रीयुक्त से" पुनः इसलिये कहा गया है; क्योंकि यहाँ विभागसहित विस्तार के समान, 'तथा' शब्द एवं 'इति' शब्द को दुहराया नहीं गया है। अथवा यह 'विपुलेन'-समापन के अर्थ में उक्त है। एवं विपुलता को यहाँ "विस्तार के अर्थ में विपुलता" समझना चाहिये। भूमि के अनुसार यह महग्गत है। अभ्यस्त होने से एवं अप्रमाण (असंख्य) सत्त्वों को आलम्बन बनाने से अप्पमाणं है। व्यापाद एवं वैर के प्रहाण के कारण अवेरं है। दौर्मनस्य के प्रहाण के कारण अव्यापझं हैं। अर्थात् दुःखरहित। यह मैत्रीयुक्तचित्त से आदि प्रकार से कही गयी बहुआयामी परिवर्तनशील 'विकुब्बना' का अर्थ है।
३५. और जैसे यह बहुआयामी परिवर्तनशीलता मैत्रीयुक्त चित्त को ही प्राप्त होती है, वैसे ही जो भी पटिसम्भिदामग्ग में यों कहा गया है-"पाँच प्रकार से विभागरहित रूप से विस्तृत मैत्री-चित्त-विमुक्ति है, सात प्रकार से विभाग सहित मैत्रीचित्त-विमुक्ति है, दस प्रकार से दिशा में विस्तृत मैत्री-चित्तविमुक्ति है" (खु० नि० ५/३८०), वह भी अर्पणा-प्राप्त चित्त को ही उपलब्ध होती है-ऐसा समझना चाहिये।
एवं वहाँ "सभी सत्त्व वैररहित, व्यापादरहित, व्याकुलतारहित, सुखपूर्वक जीवन-यापन १. वुत्तस्सेवत्थस्स पुन वचनं निगमनं। समापनवसेनेत्यत्थो।