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विसुद्धिमग्गो "असुकं वा असुकं वा गण्हन्तू" ति चिन्तेय्य, अकतो व होति सीमासम्भेदो। सचे पि "मं गण्हन्तु, मा इमे तयो" ति पि चिन्तेय्य, अकतो व होति सीमासम्भेदो। कस्मा? यस्स यस्स हि गहणं इच्छति, तस्स तस्स अहितेसी होति, इतरेसं येव हितेसी होति। यदा पन चतुन्नं जनानमन्तरे एके पि चोरानं दातब्बं न पस्सति, अत्तनि च तेसु च तीसु जनेसु सममेव चित्तं पवत्तेति, कतो होति सीमासम्भेदो। तेनाहु पोराणा
"अत्तनि हितमझत्ते अहिते च चतुब्बिधे। यदा पस्सति नानत्तं हितचित्तो व पाणिनं॥ न निकामलाभी मेत्ताय कुसली ति पवुच्चति। यदा चतस्सो सीमायो सम्भिन्ना होन्ति भिक्खनो॥ समं फरति मेत्ताय सब्बलोकं सदेवकं।
महाविसेसो पुरिमेन यस्स सीमा न नायती" ति॥ ३३. एवं सीमासम्भेदसमकालमेव च इमिना भिक्खुना निमित्तं च उपचारं च लद्धं होति। सीमासम्भेदे पन कते तमेव निमित्तं आसेवन्तो भावेन्तो बहुलीकरोन्तो अप्पकसिरेनेव पथवीकसिणे वुत्तनयेनेव अप्पनं पापुणाति। एत्तावतानेन अधिगतं होति पञ्चङ्गविप्पहीनं पच्चङ्गसमन्नागतं तिविधकल्याणं दसलक्खणसम्पन्न पठमं झानं मेत्तासहगतं। अधिगते च तस्मि तदेव निमित्तं आसेवन्तो भावेन्तो बहुलीकरोन्तो अनुपुब्बेन चतुक्कनयेन दुतियततियज्झानानि, पञ्चकनये दुतियततियचतुत्थज्झानानि च पापुणाति।
रक्त लेकर बलि बढ़ायी जा सके।" ऐसी स्थिति में यदि वह भिक्षु-"अमुक को या अमुक को ले जाँय" ऐसा सोचता है, तो (समझना चाहिये कि) सीमा का अतिक्रमण नहीं हुआ। और यदि इस प्रकार भी सोचे कि "मुझे ले जाँय, इन तीनों को नहीं" तो भी सीमा का अतिक्रमण नहीं हुआ। क्यों? क्योंकि जिस जिस को ले जाया जाना चाहता है, उस उसके प्रति अहितैषी होता है, अन्यों के प्रति ही हितैषी होता है। किन्तु जब चारों जनों में से एक को भी चोरों को सौंप दिये जाने योग्य नहीं देखता, स्वयं और उन तीनों जनों के प्रति समानभाव रखता है, तभी सीमा का अतिक्रमण किया हुआ होता है। इसीलिये प्राचीन विद्वानों ने कहा है
"जब तक (साधक) स्वयं, हित, मध्यस्थ और अहित-इन चारों में नानात्वं देखता है, तब तक वह प्राणियों के प्रति (मात्र) हितैषी ही (कहा जाता है)। ..'इच्छानुसार मैत्री का लाभ करने वाला' या मैत्री-कुशल नहीं कहा जाता।
__जब भिक्षु की चारों सीमाएँ अतिक्रान्त होती हैं, तब मैत्री से देवलोक सहित समस्त लोकों को व्याप्त कर देता है। प्रथम (हितैषिमात्र) की अपेक्षा वह अतिविशिष्ट है, जिसे सीमा का भान नहीं है।
३३. यों सीमा का अतिक्रमण करते ही, इस भिक्षु को निमित्त भी और उपचार भी प्राप्त हो जाता है। सीमा तोड़ चुकने पर उसी निमित्त का अभ्यास, भावना, बार बार अभ्यास करते हुए वह अल्प प्रयास से ही, पृथ्वीकसिण में उक्त प्रकार से ही अर्पणा प्राप्त करता है। यहाँ तक उसे मैत्रीसहगत प्रथम ध्यान की प्राप्ति हो चुकी रहती है, जो पाँच अङ्गों से रहित, पाँच अङ्गों