________________
१६४
विसुद्धिमग्गो अमनुस्सानं पियो होति, देवता रक्खन्ति, नास्स अग्गि वा विसं वा सत्थं वा कमति, तुवटं चित्तं समाधियति, मुखवण्णो पसीदति, असम्मूळ्हो कालं करोति, उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो ब्रह्मलोकूपगो होती' (अं नि० ४/४६०) ति। सचे त्वं इदं चित्तं न निब्बापेस्ससि, इमेहि आनिसंसेहि परिबाहिरो भविस्ससी" ति।
. ३०. एवं पि निब्बापेतुं असक्कोन्तेन पन धातुविनिब्भोगो कातब्बो। कथं? "अम्भो पब्बजित, त्वं एतस्स कुज्झमानो कस्स कुज्झसि? किं केसानं कुज्झसि, उदाहु लोमानं, नखानं...पे०...मुत्तस्स कुज्झसि। अथ वा पन केसादीसु पथवीधातुया कुज्झसि, आपोधातुया, तेजोधातुया, वायोधातुया कुज्झसि? ये वा पञ्चक्खन्धे, द्वादसायतनानि, अट्ठारस धातुयो उपादाय अयमायस्मा इत्थन्नामो ति वुच्चति, तेसु किं रूपक्खन्धस्स कुज्झसि, उदाहु वेदना... सञ्जा... सङ्घार... विचाणक्खन्धस्स कुज्झसि? किं वा चक्खायतनस्स कुज्झसि, किं रूपायतनस्स कुज्झसि...पे०...किं मनायतनस्स कुज्झसि, किं धम्मायतनस्स कुज्झसि? किं वा चक्खुधातुया कुज्झसि, किं रूपधातुया, किं चक्खुविज्ञाणधातुया...पे....किं मनोधातुया, किं धम्मधातुया, किं मनोविज्ञाणधातुया" ति? एवं हि धातुविनिब्भोगं करोतो आरग्गे सासपस्स विय आकासे चित्तकम्मस्स विय च कोधस्स पतिट्ठानट्ठानं न होति।।
३१. धातुविनिब्भोगं पन कातुं असक्कोन्तेन दानसंविभागो कातब्बो। अत्तनो सन्तकं परस्स दातब्बं, परस्स सन्तकं अत्तना गहेतब्बं । सचे पन परो भिनाजीवो होति अपरिभोगा
से सोता है, सुख से जागता है, दुःस्वप्न नहीं देखता, मनुष्यों का प्रिय होता है, अमनुष्यों का प्रिय होता है, देवता उसकी रक्षा करते हैं, उस पर अग्नि, विष या शस्त्र का प्रभाव नहीं पड़ता, शीघ्र ही चित्त एकाग्र हो जाता है, मुख की कान्ति बढ़ती है, असम्मूढ़ होकर मरता है, उच्चतर (अवस्था) न पाकर भी, ब्रह्मलोक में उत्पन्न होता है' (अंनि० ४/४६०)? यदि तुम इस (प्रतिघ-) चित्त को शान्त नहीं करोगे तो इन लाभों से वञ्चित रहोगे।"
३०. जो इस प्रकार भी शान्त न कर सके तो उसे धातुओं के बारे में पृथक्शः विवेचन करना चाहिये। कैसे? "हे प्रव्रजित! यो क्रोध करते हुए तुम किस पर क्रोध करते हो? क्या केशों पर क्रोध करते हो, या रोमों पर, या नखों पर...पूर्ववत्...मूत्र पर क्रोध करते हो? अथवा, क्या केश आदि (की उत्पत्ति के घटक रूप) में पृथ्वी धातु पर क्रोध करते हो, या जल...तेज...वायु धातु पर क्रोध करते हो? अथवा, जिन पञ्चस्कन्ध, बारह आयतन, अट्ठारह धातुओं के सम्मिलित रूप से 'ये आयुष्मन् ! इस नाम के हैं'-यों कहा जाता है; उनमें से क्या रूपस्कन्ध पर क्रोध करते हो, या वेदना...संज्ञा...संस्कार...विज्ञानस्कन्ध पर क्रोध करते हो? अथवा, क्या चक्षुरायतन पर...पूर्ववत्...क्या मनआयतन पर क्रोध करते हो, क्या धर्मायतन पर क्या रूपधातु पर...क्या धर्मधातु पर, क्या मनोविज्ञानधातु पर क्रोध करते हो...?" यों, धातुओं का पृथक् पृथक् विवेचन (धातुविनिर्भोग) करते समय, आरे की नोंक पर सरसों के दाने के समान या आकाश में चित्रकारी के समान क्रोध टिक नहीं पाता।
३१. किन्तु जो धातुविनिर्भोग न कर सके, उसे दान और बँटवारा करना चाहिये। अपनी वस्तु दूसरे को देनी चाहिये, दूसरे की वस्तु स्वयं लेनी चाहिये। किन्तु यदि दूसरा व्यक्ति