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विसुद्धिमग्गो "यो अप्पटुस्स नरस्स दुस्सति, सुद्धस्स पोसस्स अनङ्गणस्स। तमेव बालं पच्चेति पापं, सुखुमो रजो पटिवातं व खित्तो' ति॥
(ध० प० १२५ गा०) १८. सचे पनस्स एवं कम्मस्सकतं पि पच्चवेक्खन्तो नेव तूपसम्मति, अथानेन सत्थु पुब्बचरियगुणा अनुस्सरितब्बा।
१९. तत्रायं पच्चवेक्खणानयो-"अम्भो-पब्बजित, ननु ते सत्था पुब्बे व सम्बोधा अनभिसम्बुद्धो बोधिसत्तो पि समानो चत्तारि असंख्येय्यानि कप्पसतसहस्सं च पारमियो पूरयमानो तत्थ तत्थ वधकेसु पि पच्चत्थिकेसु चित्तं नप्पदूसेसि! . .
सेय्यथीदं-सीलवजातके ताव अत्तनो देविया पदुद्वेन पापअमच्चेन आनीतस्स पटिरञ्जो तियोजनसतं रजं गण्हन्तस्स निसेधनत्थाय उद्रुितानं अमच्चानं आवुधं पि छुपितुं न अदासि। पुन सद्धिं अमच्चसहस्सेन आमकसुसाने गलप्पमाणं भूमिं खणित्वा निखञ्चमानो चित्तप्पदोसमत्तं पि अकत्वा कुणपखादनत्थं आगतानं सिङ्गालानं पंसुवियूहनं निस्साय पुरिसकारं कत्वा पटिलद्धजीवितो यक्खानुभावेन अत्तनो सिरिगब्भं ओरुय्ह सिरिसयने सयितं पच्चत्थिकं दिस्वा कोपं अकत्वा. व अज्ञमचं सपथं कत्वा तं मित्तट्ठाने ठपयित्वा आह
"आसीसेथेव पुरिसो न निब्बिन्देय्य पण्डितो।
पस्सामि वोहमत्तानं यथा इच्छि तथा अहू"॥(खु० ३: १/१४) ति। ___ "जो किसी निर्दोष, शुद्ध, निष्कलङ्क पुरुष से द्वेष करता है, उस मूर्ख के पास (उसका वह) पाप वैसे ही लौटकर आता है, जैसे विपरीत हवा में फेंकी गयी धूल ॥" (ध० प०, १२५ गाथा )
१८. यदि यों कर्म-स्वामित्व पर भी प्रत्यवेक्षण करने वाले का वैरभाव शान्त नहीं होता, तो उसे शास्ता द्वारा पूर्व में आचरण किये गये गुणों का अनुस्मरण करना चाहिये।
१९. प्रत्यवेक्षण की विधि यह है- "हे प्रव्रजित! क्या ऐसा नहीं है कि तुम्हारे शास्ता ने पूर्वकाल में जब सम्बोधि प्राप्त नहीं की थी, वे बोधिसत्त्व ही थे, तभी चार असङ्ख्य एक लाख कल्प तक पारमिताओं को पूर्ण करते हुए, विभिन्न परिस्थितियों में, वध करने वाले वैरियों के प्रति भी चित्त को द्वेषयुक्त नहीं किया था!
यथा-सीलवजातक में (लिखा मिलता है कि) उनकी पत्नी द्वारा प्रदूषित (अनुचित कर्म के लिये प्रेरित) पापी अमात्य द्वारा प्रतिपक्षी राजा को बुलाया गया, जिसने तीन सौ योजन तक फैले राज्य को ले लिया। उसे रोकने के उठ खड़े हुए अमात्यों को (बोधिसत्त्व ने) हथियार छूने भी नहीं दिया। पुन: जब एक हजार अमात्यों के साथ उन्हें श्मशान में, भूमि को खोदकर गले तक गाड़ दिया गया, तब भी उन्होंने स्वचित्त में रञ्चमात्र भी द्वेष नहीं आने दिया। शवों का भक्षण करने के लिये आये शृगालों ने बहुत परिश्रम से मिट्टी खोदकर उन्हें जीवित बाहर निकाला। एक यक्ष की कृपा से अपने शयनकक्ष में आकर शैय्या पर सोये अपने शत्रु को देखकर, उस पर क्रोध न करते हुए परस्पर शपथ ली एवं उसे मित्र मानते हुए कहा१. सिरिंगभं ति। वासागारं।