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विसुद्धिमग्गो
यथाह
" समप्पितो पुथुसल्लेन नागो; अदुट्ठचित्तो लुद्दकं अज्झभासि । किमत्थयं क्रिस्स वा सम्म हेतु ममं वधी कस्स वायं पयोगो" ॥
(खु० ३:१/३७५) एवं वत्वा च “कासिर महेसिया तव दन्तानमत्थाय पेसितोम्हि, भदन्ते" ति वुत्ते तस्सा मनोरथं पूरेन्तो छब्बण्णरस्मिनिच्छरणसमुज्जलितचारुसोभे अत्तनो दन्ते छेत्वा अदासि २३. महाकपि हुत्वा अत्तना येव पब्बतपपाततो उद्धरिलेंन पुरिसेन
"भक्खो अयं मनुस्सानं यथेवञ्जे वने यं नूनिमं वधित्वान छातो खादेय्य असितो व गमिस्सामि मंसमादाय
कन्तारं नित्थरिस्सामि पाथेय्यं मे भविस्सती" ति ॥ (खु० ३:१ / ३८३) एवं चिन्तेत्वा सिलं उक्खिपित्वा मत्थके सम्पदालिते अस्सुपुण्णेहि नेत्तेहि तं पुरिसं
उदक्खमानो
मगा ।
वानरं ॥
सम्बलं ।
" मा अय्योसि मे भदन्ते त्वं ३ नामेतादिसं करि । त्वं खोसि नाम दीघावु अञ्जं वारेतुमरहसी" ति ॥
(खु०३:१ / ३८४)
"मोटे बाण से मारे गये हाथी ने द्वेषरहित चित्त से व्याध से कहा - "सौम्य ! किसलिये, किस कारण मुझे मारा ? या यह किसका काम है?" (खु० ३:१/३७५ ) - ऐसा कहा ।
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" भदन्त, मैं काशीराज की रानी द्वारा तुम्हारे दाँत लाने के लिये भेजा गया हूँ" - यों कहे जाने पर उसका मनोरथ पूर्ण करते हुए, जिनसे छह रंगों की रश्मियाँ निकलती थीं, ऐसे सुन्दर सुशोभित अपने दाँतों को तोड़कर दे दिया।
२३. महाकपि के रूप में, जिसे उन ने पहाड़ी झरने ( में डूबने से बचाया था, उसी पुरुष द्वारा " जैसे दूसरे वन्य पशु हैं, वैसे ही यह भी मनुष्यों के लिए भक्ष्य है। भूखा (व्यक्ति) इस बन्दर को मारकर क्यों नहीं खा सकता !
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'भोजन से तृप्त होकर ही, और रास्ते में खाने के लिए मांस लेकर जाऊँगा। (यह) मेरा पाथेय होगा ।" (खु० ३:१ / ३८३)
ऐसा सोचकर (उस व्यक्ति ने) शिला उठाकर (बन्दर के) मस्तक पर पटक दी। तब अश्रुपूर्ण नेत्रों से पुरुष को देखता हुआ
" भदन्त ! आप मेरे लिये (अतिथि होने से ) आर्य हैं। आपने भी ऐसा किया! हे दीर्घायु, आप को तो दूसरों को रोकना चाहिये था।" (खु० ३:१ / ३८४)
१. सम्बलं ति । मग्गाहारं ।
२-२. मा अय्योसि मे भदन्ते ति । एत्थ मा ति निपातमत्तं, मा ति वा पटिक्खेपो, तेन उपरि तेन कातब्ब विप्पकारं पटिसेधेति । अय्यो मे ति अय्यिरको त्वं मम अतिथिभावतो । भदन्ते ति । पियसमुदाचारो । ३- ३. त्वं नामेतादिसं करी ति । त्वं पि एवरूपं अकासि नाम ।