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ब्रह्मविहारनिद्देस
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वत्वा तस्मि पुरिसे चित्तं अप्पदूसेत्वा अत्तनो च दुक्खं अचिन्तेत्वा तमेव पुरिसं खेमन्तभूमिं सम्पापेसि।
२४. भूरिदत्तो नाम नागराजा हुत्वा उपोसथङ्गानि अधिट्ठाय वम्मिकमुद्धनि सयमानो कप्पुट्ठानग्गिसदिसेन ओसधेन सकलसरीरे सिञ्चियमानो पि पेळाय पक्खिपित्वा सकलजम्बुदीपे कीळापियमानो पि तस्मि ब्राह्मणे मनोपदोसमत्तं पि न अकासि । यथाह
"पेळाय पक्खिपन्ते पि मद्दन्ते पि च पाणिना । अलम्पाने' न कुप्पामि सीलखण्डभया ममा" ति ॥
(खु० ७-४०१ ) २५. चम्पेय्यो पि नागराजा हुत्वा अहितुण्डिकेन विहेठियमानो मनोपदोसमत्तं पिन
उप्पादेसि ।
" तदापि मं धम्मचारि उपवुत्थउपोसथं । अहितुण्डिको गहेत्वान राजद्वारम्हि कीळति ॥ यं सो वण्णं चिन्तयति नीलं पीतं व लोहितं । तस्स चित्तानुवत्तन्तो होमि चिन्तितसन्निभो ॥ थलं करेय्यं उदकं उदकं पि थलं करे । यदिहं तस्स कुप्पेय्यं खणेन छारिकं यदि चित्तवसी हेस्सं परिहायिस्सामि
करे ॥
सीलतो ।
सीलेन परिहीनस्स उत्तमत्थो न सिज्झती' ति ॥ ( खु० ७-४०२) ॥
- ऐसा कहा और अपने चित्त को दूषित न करता हुआ, वैसे उस (अपकारी, कृतघ्न ) पुरुष को भी उसके लक्ष्य तक सकुशल पहुँचा दिया।
२४. भूरिदत्त नामक सर्पराज के रूप में, जब वह उपोसथ के अङ्गों का अधिष्ठान कर दीमक की बाँबी पर सोये हुए थे, उस समय ( पकड़े जाने के बाद) यद्यपि कल्पान्त (के समय प्रज्वलित होने वाली) अग्नि के समान ( दाहक) औषधि से उनका समस्त शरीर भिगोया गया, पिटारी में डालकर समस्त जम्बूद्वीप में क्रीड़ा का विषय बनाया गया, फिर भी उस ब्राह्मण (सँपेरे) के प्रति मन में द्वेष तक नहीं आने दिया। जैसा कि कहा है
"जब पिटारी में डाला तब भी, या हाथ से मर्दन किया तब भी, अपना शील खण्डित हो जाने के भय से, मैं अलम्पान ( नाम के सँपेरे) पर क्रोध नहीं करता था ।। " (खु० ७.४०१) २५. चम्पेय्य नामक सर्पराज के रूप में भी, सँपेरे द्वारा तंग किये जाने पर मन में द्वेष नहीं आने दिया। जैसा कि कहा है
"उस समय भी, जब मैं उपोसथ नियम का पालन कर रहा था, एक सँपेरा मुझे पकड़ कर राजद्वार पर तमाशा दिखाने ले गया। वह जिस जिस रंग के बारे में चिन्तन करता था - - नीला, पीला, लाल - उसके विचारों के अनुरूप में वैसा वैसा ही होता जाता था । (उस समय मुझमें इतनी शक्ति थी कि यदि मैं चाहता तो स्थल को जल और जल को स्थल कर देता। यदि मैं उस पर
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४. अलम्पाने ति । एवंनामके अहितुण्डिके ।