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९. ब्रह्मविहारनिद्देसो
नवमो परिच्छेदो
१. मेत्ताभावनाकथा १. अनुस्सतिकम्मट्ठानानन्तरं उद्दिढेसु पन मेत्ता करुणा मुदिता उपेक्खा ति इमेसु चतूसु ब्रह्मविहारेसु मेत्तं भावेतुकामेन ताव आदिकम्मिकेन योगावचरेन उपच्छिन्नपलिबोधेन गहितकम्मट्ठानेन भत्तकिच्चं कत्वा भत्तसम्मदं पटिविनोदेत्वा विवित्ते पदेसे सुपञत्ते आसने सुखनिसिन्नेन आदितो ताव दोसे आदीनवो खन्तियं च आनिसंसो पच्चवेक्खितब्बो।
२. कस्मा? इमाय हि भावनाय दोसो पहातब्बो, खन्ति अधिगन्तब्बा। न च सक्का किञ्चि अदिट्ठादीनवं पहातुं अविदितानिसंसा वा अधिगन्तुं। तस्मा "दुट्ठो खो, आवुसो, दोसेन अभिभूतो परियादिण्णचित्तो पाणं पि हनती" (अं० नि० १/२८४) ति आदीनं वसेन दोसे आदीनवो दट्ठब्बो।
३. “खन्ती परमं तपो तितिक्खा निब्बानं परमं वदन्ति बुद्धा" (ध० प० १८४ गा०) "खन्तीबलं बेलानीकं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं" (ध० प० ३९९ गा०)
"खन्त्या भिय्यो न विजती" (सं० नि० १/३५६) ति आदीनं वसेन खन्तियं आनिसंसो वेदितब्बो।
९. ब्रह्मविहारनिर्देश
नवम परिच्छेद
१. मैत्री भावना - १. अनुस्मृतिकर्मस्थान के बाद उपदिष्ट १. मैत्री, २. करुणा, ३. मुदिता एवं ४. उपेक्षाइन चार ब्रह्मविहारों में, मैत्री की भावना करने के अभिलाषी, पलिबोधों को नष्ट कर चुके एवं कर्मस्थान को ग्रहण कर चुके आदिकर्मिक योगी को भोजन समाप्त कर तथा भोजनजनित आलस्य को दूरकर, एकान्त स्थान में अच्छी तरह से बिछाये आसन पर सुखपूर्वक बैठकर, सर्वप्रथम द्वेष (वैर) के दोष एवं क्षान्ति (=क्षमा, सहनशीलता) के गुण पर विचार करना चाहिये।
२. क्यों? क्योंकि इस भावना के लिये द्वेष का नाश एवं क्षान्ति की प्राप्ति आवश्यक है अन्यथा किसी अदृष्ट दोष का प्रहाण तथा अविदित गुण की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अतः "आयुष्मन्, द्वेष के वशीभूत, उपहत चित्तवाला द्वेषी जीवहिंसा भी करता है" (अं० नि० १/२८४)-आदि पालि के अनुसार द्वेष में दोष देखना चाहिये।
३. "बुद्धगण शान्ति तितिक्षा को परम तप, एवं निर्वाण को परमपद बतलाते हैं"।
"क्षान्ति-बल ही जिसका सैन्यबल है, उसे मैं 'ब्राह्मण' कहता हूँ।"(ध० प० ३९९ गा०) १. उद्दिद्वेसू ति। ततियपरिच्छेदे चत्तालीसकम्मट्ठानकथायं। २. 'तितिक्खलक्खणा खन्ति उत्तमं तपो' त्यत्थो।
३. बलानीकं ति। सेनाबलं।