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ब्रह्मविहारनिद्देसो
१५३ अस्सा ति...पे०....न कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उप्पजेय्या ति। तं किस्स हेतु? न, भिक्खवे, सपत्तो सपत्तस्स सुगतिगमनेन नन्दति। कोधनायं, भिक्खवे, पुरिसपुग्गलो कोधाभिभूतो कोधपरेतो कायेन दुच्चरितं चरति, वाचाय...मनसा दुच्चरितं चरति, सो कायेन वाचाय मनसा दुच्चरितं चरित्वा कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जति कोधाभिभूतो" (अं नि० ३/२८५) ति च?
"सेय्यथापि, भिक्खवे, छवालातं उभतोपदित्तं मझे गूथगतं नेव गामे कट्ठत्थं फरति', न अरञ्जे कटुत्थं फरति; तथूपमाहं, भिक्खवे, इमं पुरिसपुग्गलं वदामी" (अं० नि० २/१३२) ति च?
सो दानि त्वं एवं कुज्झन्तो न चेव भगवतो सासनकरो भविस्ससि, पटिकुज्झन्तो च कुद्धपुरिसतो पि पापियो हुत्वा न दुजयं सङ्गामं जेस्ससि, सपत्तकरणे च धम्मे अत्ता व अत्तना करिस्ससि छवालातूपमो च भविस्ससी" ति!
___१४. तस्सेवं घटयतो वायमतो सचे तं पटिघं वूपसम्मति, इच्चेतं कुसलं। नो चे वूपसम्मति, अथ यो यो धम्मो तस्स पुग्गलस्स वूपसन्तो होति परिसुद्धो, अनुस्सरियमानो पसादं आवहति, तं तं अनुस्सरित्वा आघातो पटिविनोदेतब्बो।
१५. एकच्चस्स हि कायसमाचारो व उपसन्तो होति, उपसन्तभावो चस्स बहुं वत्तपटिपत्तिं करोन्तस्स सब्बजनेन जायति । वचीसमाचारमनोसमाचारा पन अवूपसन्ता होन्ति। तस्स ते अचिन्तेत्वा कायसमाचारवूपसमो येव अनुस्सरितब्बो। (१) न पाये। वह क्यों? क्योंकि भिक्षुओ, शत्रु शत्रु की सुगति से प्रसन्न नहीं होता। भिक्षुओ! यह क्रोधाभिभूत, क्रोध द्वारा शासित, क्रोधी पुरुष काया से दुराचार करता है, वचन से दुराचार करता है, मन से दुराचार करता है। वह काया, वचन, मन से दुराचार करते हुए मृत्यु के पश्चात् दुर्गति-नरक में उत्पन्न होता है।" (अं० नि० ३/२८५)? __ . एवं-(क्या यह नहीं कहा है कि) "भिक्षुओ, जैसे शव जलाने के बाद बची हुई लकड़ी, जो दोनों ओर से जली हुई हो और जिसके बीच में मल लगा हो, न तो ग्राम में और न ही जङ्गल में किसी उपयोग में आती है, भिक्षुओ! मैं इस पुरुष को वैसा ही कहता हूँ।" (अं० नि० २/१३२)?
(क्योंकि भगवान् ने ऐसा कहा है, इसलिये) यदि तुम अब क्रोध करोगे तो भगवदुपदिष्ट धर्म का पालन करने वाले नहीं रहोगे। क्रोध के बदले क्रोध करते हुए तुम क्रुद्ध पुरुष से भी बड़े पापी होकर, दुर्जय संग्राम को नहीं जीत सकोगे। शत्रु द्वारा किया जाने वाला धर्म (अपकार) स्वयं के प्रति करोगे तो शव जलाने के बाद बची हुई लकड़ी के समान होगे।
१४. उसके यो प्रयास करने पर यदि प्रतिष शान्त हो जाय तो अच्छा है। यदि शान्त न हो तो उस पुरुष (वैरी) में जो जो शान्त, परिशुद्ध धर्म हों, उन उन का अनुस्मरण करते हुए वैर का शमन करना चाहिये।
१५. किसी का कायिक कर्म ही शान्त (मर्यादित) होता है, एवं बहुत से व्रतों का पालन करने वाले का शान्त भाव सभी के द्वारा जाना जाता है। किन्तु वाचिक और मानसिक कर्म अशान्त १-१. कट्ठत्थं ति। दारुकिच्वं । नेव फरतीति। न साधेति।