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विसुद्धिमग्गो तं च खो इमिना आकारेन अत्तानं ओवदन्तेनेव-"अरे कुज्झनपुरिस, ननु वुत्तं भगवता-'उभतो दण्डकेन चे पि, भिक्खवे, ककचेन चोरा ओचरका अङ्गमङ्गानि ओकन्तेय्यु, तत्रा पि यो मनो पदोसेय्य, न मे सो तेन सासनकरो' (म० १/१८७) ति च?
"तस्सेव तेन पापियो यो कुद्धं पटिकुज्झति। कुद्धं अप्पटिकुज्झन्तो सङ्गामं जेति दुजयं॥ उभिन्नमत्थं चरति अत्तनो च परस्स च।
परं सङ्कुपितं अत्वा यो सतो उपसम्मती" (सं०. १/२६३) ति च? "सत्तिमे, भिक्खवे, धम्मा सपत्तकन्ता सपत्तकरणा कोधनं आगच्छन्ति इत्थिं, वा पुरिसंवा।कतमे सत्त? इध, भिक्खवे, सपत्तो सपत्तस्स एवं इच्छति-'अहो वतायं दुब्बण्णो अस्सा' ति। तं किस्स हेतु? न, भिक्खवे, सपत्तो सपत्तस्स वण्णवताय नन्दति। कोधनायं, भिक्खवे, पुरिसपुग्गलो कोधाभिभूतो कोधपरेतो, किञ्चापि सो होति सुन्हातो सुविलित्तो कप्पितकेसमस्सु ओदातवत्थवसनो, अथ खो सो दुब्बणो व होति कोधाभिभूतो। अयं, भिक्खवे, पठमो धम्मो सपत्तकन्तो सपत्तकरणो कोधनं आगच्छति इत्थिं वा पुरिसं वा। पुन च परं, भिक्खवे, सपत्तो सपत्तस्स एवं इच्छति-अहो वतायं दुक्खं सयेय्या ति...पे०...न पचुरत्थो अस्सा ति..पे०..न भोगवा अस्सा ति..पे०..न यसवा अस्सा ति...पे०..न मित्तवा
यदि यो प्रयास करने पर भी नाश न हो, तो-"आरा की उपमा के उपदेशानुसार प्रतिघ के नाश का बार बार प्रयास करना चाहिये।"
तथा वह भी स्वयं को इस प्रकार समझाते हुए-"अरे क्रोधी पुरुष! क्या भगवान् ने यह नहीं कहा है कि 'यदि चोर-लुटेरे दोनों और मूठ लगे आरे से अङ्ग प्रत्यङ्ग काट डालें, तब भी जो मन में द्वेष आने दे, वह मेरे धर्म का पालन करने वाला नहीं है।" (म०नि० १/१८७) एवं(क्या यह नहीं कहा है-) "क्रोध करने वाले से भी बड़ा पापी वह है, जो क्रुद्ध के प्रति बदले में क्रोध करता है। क्रुद्ध के प्रति क्रोध न करने वाला दुर्जय संग्राम को जीत लेता है।"
"दूसरे को कुपित जानकर जो शान्त हो जाता है, वह अपनी और दूसरे की भी भलाई करता है!?" (सं० नि० १/२६३)।
एवं (क्या यह नहीं कहा है कि) "भिक्षुओ, शत्रुओं द्वारा अभीष्ट, शत्रुओं द्वारा किये जाने वाले सात धर्म क्रुद्ध स्त्री या पुरुष के पास आते हैं। कौन-से सात? भिक्षुओ! यहाँ शत्रु शत्रु के लिये यों चाहता है-'अच्छा हो यदि वह कुरूप हो जाय।' ऐसा क्यों? भिक्षुओ? शत्रु शत्रु की सुन्दरता से प्रसन्न नहीं होता। भिक्षुओ! ऐसा क्रोधी पुरुष क्रोध से अभिभूत, क्रोध द्वारा शासित है। भले ही उसने अच्छी तरह स्नान किया हो, उत्तम लेप लगाया हो, मूंछ और दाढ़ी बनवायी हो, श्वेत वस्त्र पहने हो, फिर भी वह क्रोधाभिभूत (है अत:) कुरूप होता है। भिक्षुओ! शत्रुओं द्वारा अभीष्ट, शत्रुओं द्वारा क्रियमाण यह प्रथम धर्म है, जो क्रुद्ध स्त्री या पुरुष के पास आता है। भिक्षुओ, इसके अतिरिक्त, शत्रु शत्रु के लिये ऐसा चाहता है-"अच्छा हो यदि दुःख पहुँचे...इसके पास प्रचुर सम्पत्ति न हो...भोगवान् न हो...यशस्वी न हो...मृत्यु के बाद सुगति-स्वर्गलोक में जन्म १. सपत्तकन्ता ति। पटिसत्तूहि इच्छिता।