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विसुद्धिमग्गो
४. अथेवं दिट्ठादीनवतो दोसतो चित्तं विवेचनत्थाय, विदितानिसंसाय च खन्तिया संयोजनत्थाय मेत्ताभावना आरंभितब्बा । आरभन्तेन च आदितो व पुग्गलदोसा जानितब्बा"इमेसु पुग्गलेसु मेत्ता पठमं च भावेतब्बा, इमेसु नेव भावेतब्बा " ति ।
अयं हि मेत्ता अप्पियपुग्गले, अतिप्पियसहायके, मज्झत्ते, वेरिपुग्गले ति इमेसु चतूसु पठमं न भावेतब्बा। लिङ्गविसभागे ओधिसो ? न भावेतब्बा । कालकते न भावेतब्बा व । किङ्कारणा अप्पियादीसु पठमं न भावेतब्बा ? अप्रियं हि पियट्ठाने ठपेन्तो किलमति । अतिप्पियसहायकं मज्झत्तट्ठाने ठपेन्तो किलमति, अप्पमत्तके प्रिं चस्स दुक्खे उप्पन्ने आरोदनाकारप्पत्तो विय होति । मज्झत्तं गरुट्ठाने च पियट्ठाने च ठपेन्तो किलमति । वेरिमनुस्सरतो कोधो उप्पज्जति, तस्मा अप्पियादीसु पठमं न भावेतब्बा ।
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५. लिङ्गविसभागे पन तमेव आरम्भ ओधिसो भावेन्तस्स रागो उप्पज्जति । अञ्ञतरो किर अमच्चपुत्तो कुलूपकत्थेरं पुच्छि - " भन्ते, कस्स मेत्ता भावेतब्बा ति" ? थेरो " पियपुग्गले" ति आह । तस्स अत्तनो भरिया पिया होति, सो तस्सा मेत्तं भावेन्तो सब्बरत्तिं भित्तियुद्धमकासि े। तस्मा लिङ्गविसभागे ओधिसो न भावेतब्बा ।
" क्षान्ति से बढ़कर और कुछ नहीं है ।" (सं० नि० १ / ३५६ )
आदि के अनुसार क्षान्ति का गुण जानना चाहिये ।
४. यों जिसका दोष देख लिया गया उस द्वेष से चित्त को पृथक् करने के लिये एवं जिसका गुण ज्ञात हो चुका ऐसी क्षान्ति से चित्त को जोड़ने के लिये मैत्री भावना का आरम्भ करना चाहिये । आरम्भ करने वाले को पहले व्यक्तियों के दोष को (यों) समझ लेना चाहिये - " प्रारम्भ में मैत्री की भावना इन व्यक्तियों के प्रति करनी चाहिये तथा इन के प्रति नहीं करनी चाहिये।"
प्रारम्भ में इस मैत्री की भावना १. अप्रिय पुरुष, २. घनिष्ठ मित्र (या सहयोगी), ३. मध्यस्थ ( न प्रिय, न अप्रिय), और ४. वैरी पुरुष - इन चार के प्रति नहीं करनी चाहिये। असमान लिङ्ग के किसी व्यक्ति-विशेष के प्रति भी यह भावना नहीं करनी चाहिये ।
प्रारम्भ में अप्रिय आदि के प्रति भावना क्यों नहीं करनी चाहिये ? क्यों कि ( विचार के स्तर पर ) अप्रिय को प्रिय (= मैत्री के आलम्बन) के स्थान पर रखने से साधक (मानसिक तनाव के कारण) क्लान्त हो जाता है। घनिष्ठ मित्र को मध्यस्थ के स्थान पर रखने से (भी) वह क्लान्त हो जाता है (मानसिक थकान का अनुभव करता है)। उसे अल्पमात्र भी दुःख होने पर वह (योगी) क्लान्त-सा हो उठता है। वैसे ही मध्यस्थ को सम्मानित एवं प्रिय स्थान पर रखने से क्लान्त हो जाता है। वैरी का अनुस्मरण करने से क्रोध उत्पन्न होता है। इसलिये प्रारम्भ में अप्रिय आदि के प्रति यह भावना नहीं करनी चाहिये ।
५. असमान लिङ्ग के व्यक्तिविशेष के प्रति भावना करने वाले में राग उत्पन्न हो जाता
१. लिङ्गविभागे ति । इत्थिलिङ्गादिना लिङ्गेन विसदिसे ।
२. ओधिसो ति । भागसो ।
३. भित्तियुद्धमकासीति । सीलं अधिट्ठाय पिहितद्वारे गब्भे सयनपीठे निसीदित्वा मेत्तं भावेन्तो मेत्तामुखेन उप्पन्नरागेन अन्धीको भरियाय सन्तिकं गन्तुकामो द्वारं असल्लक्खेत्वा भित्तिं भिन्दित्वा पि निक्खमितुकामताय भित्तिं पहरि ।