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विसुद्धिमग्गो ७०. ततियचतुक्के पि चतुन्नं झानानं वसेन चित्तपटिसंवेदिता वेदितब्बा। अभिप्पमोदयं चित्तं ति। चित्तं मोदेन्तो पमोदेन्तो हासेन्तो पहासेन्तो अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। तत्थ द्वीहाकारेहि अभिप्पमोदो होति-समाधिवसेन च विपस्सनावसेन च।
कथं समाधिवसेन? सप्पीतिके द्वे झाने समापज्जति। सो समापत्तिक्खणे सम्पयुत्तपीतिया चित्तं आमोदेति पमोदेति। कथं विपस्सनावसेन? सप्पीतिके द्वे झाने समापजित्वा वुट्ठाय झानसम्पयुत्तं पीतिं खयतो वयतो सम्मसति; एवं विपस्सनाक्खणे झानसम्पयुतं पीतिं आरम्मणं कत्वा चित्तं आमोदेति पमोदेति। एवं पटिपन्नो अभिप्पमोदयं चित्तं अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खती ति वुच्चति।
समादहं चित्तं ति। पठमज्झानादिवसेन आरम्मणे चित्तं समं आदहन्तो समं ठपेन्तो। तानि वा पन झानानि समापज्जित्वा वुट्ठाय झानसम्पयुत्तं चित्तं खयतो वयतो सम्मसतो विपस्सनाक्खणे लक्खणपटिवेधेन उप्पज्जति खणिकचित्तेकग्गता। एवं उप्पन्नाय खणिकचित्तेकग्गताय वसेन पि आरम्मणे चित्तं समं आदहन्तो समं ठपेन्तो समादहं चित्तं अस्ससिस्सामी पस्ससिस्सामी ति सिक्खती ति वुच्चति। ।
विमोचयं चित्तं ति। पठमज्झानेन नीवरणेहि चित्तं मोचेन्तो विमोचेन्तो, दुतियेन वितक्कविचारेहि, ततियेन पीतिया, चतुत्थेन सुखदुक्खेहि चित्तं मोचेन्तो विमोचेन्तो। तानि वा पन झानानि समापज्जित्वा वुढाय झानसम्पयुत्तं चित्तं खयतो वयतो सम्मसति । सो विपस्स
तृतीय चतुष्क ७०. तृतीय चतुष्क में भी चार ध्यानों द्वारा चित्त का प्रतिसंवेदन जानना चाहिये। अभिप्पमोदयं चित्तं-चित्त को मुदित (प्रसन्न), प्रमदित, हर्षित, प्रहर्षित करते हए अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति। दो प्रकार से मुदित होता है-समाधि एवं विपश्यना द्वारा।
समाधि द्वारा कैसे? प्रीति-सम्प्रयुक्त दो ध्यानों को प्राप्त करता है। वह प्राप्ति के क्षण में सम्प्रयुक्त प्रीति द्वारा चित्त को मुदित, प्रमुदित करता है। विपश्यना द्वारा कैसे? प्रीतिसम्प्रयुक्त दो ध्यानों को प्राप्त कर उनसे उठने के बाद, ध्यानसम्प्रयुक्त प्रीति को क्षय होने वाली, व्यय होने वाली जान लेता है। इस प्रकार विपश्यना के क्षण में ध्यान-सम्प्रयुक्त प्रीति को आलम्बन बनाकर चित्त को मुदित, प्रमुदित करता है। यों प्रतिपन्न हुए योगी के विषय में कहा जाता है कि "चित्त को प्रमुदित करते हुए श्वास लूँगा और छोडूंगा-ऐसा अभ्यास करता है।"
समादहं चित्तं-प्रथम ध्यान आदि द्वारा आलम्बन में चित्त को समान रूप से (समं) लगाते हुए, समान रूप से टिकाते हुए। अथवा, उन ध्यानों को प्राप्त कर, उनसे उठने पर ध्यानसम्प्रयुक्त चित्त को क्षय होने वाला, व्यय होने वाला जानते हुए, विपश्यना के क्षण में लक्षणप्रतिवेध से चित्त की क्षणिक एकाग्रता उत्पन्न होती है। यों उत्पन्न हुई चित्त की क्षणिक एकाग्रता द्वारा भी आलम्बन में चित्त को समान रूप से लगाते हुए, समान रूप से टिकाते हुए, 'समादहं चित्तं अस्ससिस्सामी ति सिक्खति' कहा जाता है।
विमोचयं चित्तं-प्रथम ध्यान द्वारा चित्त को नीवरणों से मुक्त, विमुक्त करते हुए। द्वितीय द्वारा वितर्क-विचारों से, तृतीय द्वारा प्रीति से, चतुर्थ द्वारा सुख दुःखों से चित्त को मुक्त, विमुक्त