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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
१४१ पटिनिस्सग्गो ति वुच्चति। उभयं पि पन पुरिमपुरिमत्राणं अनुअनुपस्सनतो 'अनुपस्सना' ति वुच्चति । ताय दुविधाय पि पटिनिस्सग्गानुपस्सनाय समन्नागतो हुत्वा अस्ससन्तो च पस्ससन्तो च पटिनिस्सग्गानुपस्सी अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खती ति वेदितब्बो। - इदं चतुत्थचतुक्कं सुद्धविपस्सनावसेनेव वुत्तं । पुरिमानि पन तीणि समथविपस्सनावसेन। एवं चतुत्रं चतुक्कानं वसेन सोळसवत्थुकाय आनापानसतिया भावना वेदितब्बा।
एवं सोळसवत्थुवसेन च पन अयं आनापानस्सति महप्फला होति महानिसंसा। .
७२. तत्रस्स "अयं पि खो, भिक्खवे, आनापानस्सतिसमाधि भावितो बहुलीकतो सन्तो चेव पणीतो चा" ति आदिवचनतो सन्तभावादिवसेना पि महानिसंसता वेदितब्बा, वितक्कुपच्छेदसमत्थताय पि। अयं हि सन्तपणीतअसेचनकसुखविहारत्ता समाधिअन्तरायकरानं वितकानं वसेन इतो चितो च चित्तस्स विधावनं विच्छिन्दित्वा आनापानारम्मणाभिमुखमेव चित्तं करोति । तेनेव वुत्तं-"आनापानस्सति भावेतब्बा वितक्कुपच्छेदाया" (अं० नि० ४/५) ति।
विज्जाविमुत्तिपारिपूरिया मूलभावेना पि चस्सा महानिसंसता वेदितब्बा। वुत्तं हेतं भगवता-"आनापानस्सति, भिक्खवे, भाविता बहुलीकता चत्तारो सतिपट्टाने परिपूरेति, चत्तारो सतिपट्ठाना भाविता बहुलीकता सत्त बोझङ्गे परिपूरेन्ति, सत्त बोज्झङ्गा भाविता बहुलीकता विज्जाविमुत्तिं परिपूरेन्ती" (म० नि० ३/११६७) ति।
७३. अपि च चरिमकानं अस्सासपस्सासानं विदितभावकरणतो पिस्सा महानिसंसता में दोषदर्शन के परिणामस्वरूप उसके विपरीत-निर्वाण के प्रति झुकाव होने से उसमें प्रवेश भी करती है। मार्ग को भी परित्यागप्रतिनिःसर्ग और प्रस्कन्दनप्रतिनिःसर्ग कहा जाता है; क्योंकि वह समुच्छेद द्वारा क्लेशों का, उनके स्कन्धोत्पादक संस्कारों के साथ परित्याग कर देता है एवं (निर्वाण को) आलम्बन बनाकर निर्वाण में कूद पड़ता (प्रवेश करता) है। वे दोनों ही; क्योंकि पूर्व पूर्व ज्ञानों के पश्चात् पश्चात् दर्शनरूप हैं, अतः उन्हें अनुपश्यना' कहा जाता है। उन द्विविध प्रतिनि:सर्गानुपश्यना से युक्त होने पर (उसके बारे में) जानना चाहिये कि "अस्ससन्तो च पस्ससन्तो च पटिनिस्सग्गानुपस्सी अस्ससिस्सामि पस्ससिस्सामी ति सिक्खति।"
इस चतुर्थ चतुष्क का सम्बन्ध शुद्ध विपश्यना से है, पूर्व के तीन का शमथविपश्यना से। यों, चार चतुष्कों के अनुसार सोलह वस्तुओं वाली आनापानस्मृति की भावना जानना चाहिये।
इस प्रकार सोलह वस्तुओं के अनुसार यह आनापानस्मृति महान् फल देने वाली, माहात्म्यसम्पन्न होती है। ...
७२. वहाँ इसका "भिक्षुओ! यह आनापान स्मृति-समाधि भी भावना की गयी, बढ़ायी गयी, शान्त और प्रणीत होती है"-आदि वचन के अनुसार शान्त भाव आदि के कारण भी माहात्म्य जानना चाहिये, एवं वितर्कों के उपच्छेद में समर्थ होने के कारण भी। यह शान्त, उत्तम, अदूषित (असेचनक) सुखविहार, अतः समाधि में बाधा डालने वाले वितर्कों के रूप में चित्त का इधर उधर भटकना रोककर, चित्त को आनापान-आलम्बन की ओर ही करता है। इसलिये कहा गया है-"वितर्क के उपच्छेदहेतु आनापानस्मृति की भावना करनी चाहिये।" (अं निक ४/५)
विद्या और विमुक्ति का मूल होने से भी इसका माहात्म्य जानना चाहिये। क्योंकि भगवान्