________________
अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
१३७
जानतो, पस्सतो, पच्चवेक्खतो, चित्तं अधिट्ठहतो, सद्धाय अधिमुच्चतो, विरियं पग्गण्हतो, सतिं उपट्ठापयतो, चित्तं समादहतो, पञ्ञाय पजानतो, अभिज्ञेय्यं परिज्ञेयं पहातब्ब भावेतब्बं सच्छिकातब्बं सच्छिकरोतो सा पीति पटिसंविदिता होति । एवं सा पीति पटिसंविदिता होती" (खु०नि० ५ / २१६ ) ति ।
एतेनेव नयेन अवसेसपदानि पि अत्थतो वेदितब्बानि । इदं पनेत्थ विसेसमत्तं - तिण्णं झानानं वसेन सुखपटिसंविदिता, चतुन्नं पि वसेन चित्तसङ्घारपटिसंविदिता वेदितब्बा । चित्तसङ्घारो ति । वेदनादयो द्वे खन्धा ।
सुखपटिसंवेदीपदे चेत्थ विपस्सनाभूमिदस्सनत्थं "सुखं ति द्वे सुखानि, कायिकं च सुखं चेतसिकं चा" (खु० नि० ५ / २१८) ति पटिसम्भिदाय वृत्तं ।
पस्सम्भयं चित्तसङ्घारं ति। ओळारिकं ओळारिकं चित्तसङ्घारं पस्सम्भेन्तो । निरोधेन्तो ति अत्थो। सो वित्थारतो कायसङ्घारे वुत्तनयेनेव वेदितब्बो ।
अपि चेत्थ पीतिपदे पीतिसीसेन वेदना वुत्ता, सुखपदे सरूपेनेव वेदना । द्वीसु चित्तसङ्घारपदे "सच वेदना च चेतसिका एते धम्मा चित्तपटिबद्धा चित्तसङ्घारा " (खु० नि० ५/२२०) ति वचनतो 'सञ्ञसम्पयुत्ता' वेदना ति एवं वेदनानुपस्सनानयेन इदं चतुक्कं भासितं ति वेदितब्बं ॥
साक्षात् रूप से जानने योग्य को साक्षात् रूप से जानते हुए, पूर्ण रूप से जानने योग्य को पूर्णरूप से जानते हुए, त्याग देने योग्य को त्यागते हुए, भावना करने योग्य की भावना करते हुए, साक्षात्कार करने योग्य का साक्षात्कार करते हुए उस प्रीति का प्रतिसंवेदन होता है। इस प्रकार उस प्रीति का प्रतिसंवेदन होता है।" (खु० नि० ५ / २१६ )
इसी प्रकार से शेष तीन पदों (वाक्यांशों) का भी अर्थ समझ लेना चाहिये । अन्तर केवल यह है - तीन ध्यानों द्वारा सुख का प्रतिसंवेदन और चार द्वारा चित्तसंस्कार का प्रतिसंवेदन होता है, यों जानना चाहिये। चित्तसंस्कार = वेदना आदि दो स्कन्ध । 'सुखप्रतिसंवेदी' पद में विपश्यना की भूमि को दिखलाने के लिये पटिसम्भिदा में कहा गया है - " सुख दो हैं- कायिक और चैतसिक । "
पस्सम्भयं चित्तसङ्घारं — स्थूल चित्तसंस्कारों के शान्त करते हुए, अर्थात् निरुद्ध करते हुए। उसे विस्तार से कायसंस्कारों में कही गयी विधि से ही जाना चाहिये ।
एवं यहाँ 'प्रीति' पद में वेदना (जिसका इस चतुष्क में वस्तुतः विचार किया गया है) 'सुख' (जो कि एक रूपान्तर है) के शीर्षक के अन्तर्गत उल्लिखित है, किन्तु 'सुख' पद में वेदना को उसी रूप में बतलाया गया है। 'दो चित्तसंस्कार' – इन पदों में " संज्ञा और वेदना चैतसिक हैं, ये धर्म चित्त से संयुक्त चित्तसंस्कार हैं" (खु०नि० ५/२२० ) - इस वचन से वेदना, 'संज्ञा से सम्प्रयुक्त' है। इस प्रकार यह चतुष्क वेदना की अनुपश्यना से सम्बन्ध रखता है, ऐसा जानना चाहिये ॥
१. 'आदि' शब्द से संज्ञा का ग्रहण करना चाहिये । - टीका ।