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विसुद्धिमग्गो अथानेन तं निमित्तं नेव वण्णतो मनसिकातब्बं, न लक्खणतो पच्चवेक्खितब्बं । अपि च खो खत्तियमहेसिया चक्कवत्तिगब्भो विय कस्सकेन सालियवगब्भो विय च आवासादीनि सत्त असप्पायानि वज्जेत्वा तानेव सत्त सप्पायानि सेवन्तेन साधुकं रक्खितब्बं । अथ नं एवं रक्खित्वा पुनप्पुनं मनसिकारवसेन वुद्धिं विरूळिंह गमयित्वा दसविधं अप्पनाकोसल्लं सम्पादेतब्बं, विरियसमता योजेतब्बा। तस्सेवं घटेन्तस्स पथवीकसिणे वुत्तानुक्कमेनेव तस्मि निमित्ते चतुक्कपञ्चकज्झानानि निब्बत्तन्ति। .
(५-७) एवं निब्बत्तचतुक्कपञ्चकज्झानो पनेत्थ भिक्छ' सल्लक्खणाविवट्टनावसेन कम्मट्ठानं वड्डत्वा पारिसुद्धिं पत्तुकामो तदेव झानं पञ्चहाकारेहि वसिप्पत्तं पगुणं कत्वा नामरूपं ववत्थपेत्वा विपस्सनं पट्ठपेति।।
कथं? सो हि समापत्तितो वुट्ठाय अस्सासपस्सासानं समुदयो करजकायो च चित्तं चा ति पस्सति । यथा हि कम्मारगग्गरिया धममानाय भस्तं च पुरिसस्स च तज्जं वायामं पटिच्च वातो सञ्चरति; एवमेव कायं च चित्तं च पटिच्च अस्सासपस्सासा ति। ततो अस्सासपस्सासे च कायं च रूपं ति, चित्तं च तंसम्पयुत्तधम्मे च अरूपं ति ववत्थपेति। अयमेत्थ सङ्केपो। वित्थारतो पन नामरूपववत्थानं परतो आविभविस्साति।
तब उसे उस निमित्त का न तो वर्ण के अनुसार मनस्कार करना चाहिये, न लक्षण के अनुसार प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। अपितु जैसे राजा की महिषी (पटरानी) चक्रवर्ती के गर्भ की, या जैसे कृषक धान (जौ) की बाली की रक्षा करता है, वैसे ही आवास आदि में सात अननुकूलों को छोड़कर, उन हीं में सात अनुकूलों का सेवन करते हुए, उनकी भलीभाँति रक्षा करनी चाहिये। उसकी यों रक्षा करते हुए और बारंबार मन में लाने से उसको बढ़ाते, समृद्ध करते हुए; दस प्रकार के अर्पणाकौशल' का अभ्यास करना चाहिये तथा वीर्य में समता ले आनी चाहिये। जब वह यों प्रयत्न करता है, तब पृथ्वीकसिण में कथित क्रम के अनुसार ही, उस निमित्त में (चार ध्यान मानने वाले नय के अनुसार) चतुष्क, और (पाँच ध्यान मानने वाले नय के अनुसार) पञ्चक ध्यान उत्पन्न होता है।
५-७. जिसमें यों चतुष्क-पञ्चक ध्यान का उत्पाद हो गया हो, ऐसा भिक्षु सल्लक्षणा एवं विवर्तना द्वारा कर्मस्थान को बढ़ाकर, पारिशुद्धि प्राप्ति की कामना से उसी ध्यान में पाँच प्रकार से वश प्राप्त कर, अभ्यस्त कर, नाम-रूप का निश्चय करते हुए विपश्यना प्रारम्भ करता है।
कैसे? वह समापत्ति से उठने पर यह देखता (अनुभव करता) है कि आश्वास-प्रश्वासों के कारणभूत कर्मज शरीर (भौतिक शरीर) और चित्त हैं। जैसे लोहार की धौंकनी को फूंकते समय भाथी (चमड़े की थैली), (फूंकने वाले) पुरुष, और उसके प्रयास से वायु का सञ्चार होता है, वैसे ही काया तथा चित्त के कारण आश्वास-प्रश्वास होते हैं। तब वह निश्चय करता है कि आश्वासप्रश्वास और काया 'रूप' हैं, तथा चित्त और उससे सम्प्रयुक्त धर्म 'अरूप' हैं। यह यहाँ संक्षेप में कहा गया। विस्तार से इसका व्याख्यान १८वें परिच्छेद 'नामरूपपरिग्रहकथा' में किया जायगा।
१. द्र० पृथ्वीकसिणनिर्देश, चतुर्थपरिच्छेद।