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विसुद्धिमग्गो नुस्सरणाधिमुत्तताय वा अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति। तदेतं सीलगुणानुस्सरणवसेन उप्पन्नत्ता सीलानुस्सतिच्चेव सङ्कं गच्छति। .
___ इमं च पन सीलानुस्सतिं अनुयुत्तो भिक्खु सिक्खाय सगारवो होति, सभागवुत्ति, पटिसन्थारे अप्पमत्तो, अत्तानुवादादिभयविरहितो, अणुमत्तेसु वजेसु भयदस्सावी, सद्धादिवेपुलं अधिगच्छति, पीतिपामोजबहुलो होति। उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो पन सुगतिपरायनो होति।
तस्मा हवे अप्पमादं कयिराथ सुमेधसो। एवं महानुभावाय सीलानुस्सतिया सदा ति॥
इदं सीलानुस्सतियं वित्थारकथामुखं॥ ५. चागानुस्सतिकथा ४०. चागानुस्सतिं भावेतुकामेन पन पकतिया चागाधिमुत्तेन निच्चप्पवत्तदानसंविभागेन भवितब्बं । अथ वा पन भावनं आरभन्तेन 'इतो दानि पभुति सति पटिग्गाहके अन्तमसो एकालोपमत्तं पि दानं अदत्वा न भुञ्जिस्सामी' ति समादानं कत्वा तं दिवसं गुणविसिट्टेसु पटिग्गाहकेसु यथासत्ति यथाबलं दानं दत्वा तत्थ निमित्तं गण्हित्वा रहोगतेन पटिसल्लीनेन "लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, योहं मच्छेरमलपरियुट्ठिताय पजाय विगतमलमच्छेरेन चेतसा विहरामि, मुत्तचागो पयतपाणि वोस्सग्गरतो याचयोगो दानसंविभागरतो" (अ० नि० ३/११) ति एवं विगतमल-मच्छेरतादिगुणवसेन अत्तनो चागो अनुस्सरितब्बो। गम्भीरता के कारण या नाना प्रकार के गुणों के अनुस्मरण के प्रति रुचि होने से अर्पणा.नहीं प्राप्त होती, उपचारध्यान ही प्राप्त होता है। शील के गुणों के अनुस्मरणवशात् उत्पन्न यह (ध्यान) भी 'शीलानुस्मृति' कहा जाता है।
एवं इस शीलानुस्मृति में लगा हुआ भिक्षु शिक्षा (-पदों) के प्रति गौरवयुक्त होता है, (सब्रह्मचारियों के साथ ब्रह्मचर्य के विषय में) समानता रखने वाला होता है, (प्रिय वचनों से) स्वागत करने में अप्रमत्त होता है। आत्मनिन्दा आदि के भय से रहित होता है। अल्प दोष में भी भय देखता है। उसमें श्रद्धा आदि की अधिकता होती है, प्रीति-प्रमोद की अधिकता होती है। उत्तर (मार्ग-फल) को न प्राप्त करने पर भी, सुगति पाता है। इसलिये ऐसे महान् गुणों वाली शीलानुस्मृति में बुद्धिमान् सदा प्रमादरहित रहे।
यह शीलानुस्मृति की विस्तृत व्याख्या है॥
५. त्यागानुस्मृति ४०. त्यागानुस्मृति की भावना के अभिलाषी को स्वभाव से ही दान में रुचि रखने वाला, नित्य ही दान देने और बाँटने वाला होना चाहिये। अथवा, भावना आरम्भ करने वाले को-"अब से मैं दान लेने योग्य किसी के होने पर जब तक उसे दान नहीं दे लूँगा, तब तक एक ग्रास भी नहीं खाऊँगा"-ऐसा सङ्कल्प कर, उस दिन विशिष्ट गुणों से सम्पन्न दान लेने वालों को यथाशक्ति
समानदान) में निमित्त ग्रहण करके एकान्त में एकाग्र होकर 'मात्सर्य (कृपणतारूप) मल से रहित होना' आदि गुणों के अनुसार अपने त्याग का इस प्रकार अनुस्मरण करना चाहिये"यह मेरा लाभ है, यह मेरा बहुत बड़ा लाभ है, कि मैं मात्सर्य-मल से अभिभूत सत्त्वों में मात्सर्य