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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
७३ पण्णत्तिसमतिक्कमनतो ति। या अयं केसा लोमा ति आदिका पण्णत्ति, तं अतिक्कमित्वा पटिक्कूलं ति चित्तं ठपेतब्बं । यथा हि उदकदुल्लभकाले मनुस्सा अरजे उदपानं दिस्वा तत्थ तालपण्णादिकं किञ्चिदेव साणं बन्धित्वा तेन साणेन आगन्त्वा न्हायन्ति चेव पिबन्ति च। यदा पन नेसं अभिण्हसञ्चारेन आगतागतपदं पाकटं होति, तदा साणेन किच्वं न होति, इच्छितिच्छितक्खणे गन्त्वा न्हायन्ति चेव पिबन्ति च; एवमेव पुब्बभागे केसा लोमा ति पण्णत्तिवसेन मनसिकरोतो पटिक्कूलभावो पाकटो होति। अथ केसा लोमा ति पण्णत्तिं समतिक्कमित्वा पटिक्कूलभावे येव चित्तं ठपेतब्बं । (५)
अनुपुब्बमुञ्चनतो ति। यो यो कोट्ठासो न उपट्ठाति, तं तं मुञ्चन्तेन अनुपुब्बमुञ्चनतो मनसिकातब्बं । आदिकम्मिकस्स हि 'केसा' ति मनसिकरोतो मनसिकारो गन्त्वा 'मुत्तं' ति इमं परियोसानकोट्ठासमेव आहच्च तिट्ठति । 'मुत्तं' ति च मनसिकरोतो मनसिकारो गन्त्वा 'केसा' ति इमं आदिकोट्ठासमेव आहच्च तिट्ठति। अथस्स मनसिकरोतो मनसिकरोतो केचि कोट्ठासा उपट्ठहन्ति, केचि न उपट्ठहन्ति । तेन ये ये उपट्ठहन्ति, तेसु तेसु ताव कम्मं कातब्बं, याव द्वीसु उपट्टितेसु तेसं पि एको सुट्टतरं उपट्टहति । एवं उपट्ठितं पन तमेव पुनप्पुनं मनसिकरोन्तेन अप्पना उप्पादेतब्बा। .
तत्रायं उपमा-यथा हि द्वत्तिंसतालके तालवने वसन्तं मक्कटं गहेतुकामो लुद्दो आदिम्हि ठिततालस्स पण्णं सरेन विज्झित्वा उक्कुटिं करेय्य, अथ खो सो मक्कटो पटिपाटिया तस्मि तस्मि
पण्णत्तिसमतिक्कमनतो-जो यह केश, रोम आदि प्रज्ञप्ति (नाम) है, उसका अतिक्रमण कर (उनके सामान्य धर्म अर्थात्) प्रतिकूल (पक्ष) पर चित्त को स्थिर करना चाहिये। जैसा कि जब पानी कठिनाई से मिलता है तब लोग वन में पानी का सोता देखकर वहाँ ताड़-पत्र आदि किसी चिह्न (पहचान) को बाँधकर (लटका देते हैं), लोग उसी चिह्न के सहारे (वहाँ) पहँचकर नहाते और पीते हैं। किन्तु जब उनके रात-दिन आते जाते रहने से पदचिह्न साफ-साफ दिखायी देते हैं, तब उस (पूर्वोक्त) चिह्न का कोई उपयोग नहीं रह जाता, वहाँ जब जब लोग चाहते हैं, तब तब आकर नहाते पीते हैं। वैसे ही पहले केश, रोम-यों नाम के साथ (प्रतिकूलता) का चिन्तन करते करते प्रतिकूल भाव प्रकट हो जाता है। ऐसा होने पर 'केश, रोम'-यों प्रज्ञप्ति को छोड़कर प्रतिकूलत्व मात्र में ही चित्त को स्थिर करना चाहिये। (५)
अनुपुब्बमुच्चनतो-जो-जो भाग (मन में स्पष्टतया) प्रतीत न होते हों, उन्हें क्रमशः छोड़ते हुए चिन्तन करना चाहिये, क्योंकि जब साधन प्रारम्भ करने वाला केश' 'केश' यों चिन्तन करता है, तब (उसका) चिन्तन अन्तिम भाग 'मूत्र' पर जाकर टिक जाता है। इस प्रकार (चिन्तन के एक छोर से दूसरे छोर पर भागमे की प्रक्रिया के क्रम में) कोई भाग तो (मन में) उपस्थित होते हैं, कोई नहीं होते। इसलिये जो उपस्थित होते हों, उन पर तब तक (चिन्तन का अभ्यास रूप) कर्म करते रहना चाहिये, जब तक कि उन दोनों में से कोई एक भी अच्छी तरह से उपस्थित नहीं हो जाता। जब उपस्थित हो जाय, तब उसी पर बार बार चिन्तन करते हुए अर्पणा उत्पन्न करनी चाहिये।
यहाँ पर उपमा है-जिस प्रकार कि बत्तीस ताड़ के पेड़ों वाले ताड़-वन में रहने वाले .