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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो तब्बो। केसा न लोमा, लोमा पि न केसा ति एवं अमिस्सकतावसेन विसभागपरिच्छेदो वेदितब्बो। (७)
एवं सत्तधा उग्गहकोसल्लं आचिक्खन्तेन पन इदं कम्मट्टानं असुकस्मि सत्ते पटिकूलवसेन कथितं, असुकस्मि धातुवसेना ति उत्वा आचिक्खितब्बं । इदं हि महासतिपट्ठाने (दी० नि० २/५२०) पटिक्कूलवसेनेव कथितं। महाहत्थिपदोपम-महाराहुलोवाद-धातुविभङ्गेसु धातुवसेन कथितं। कायगतासतिसुत्ते (म० नि० ३/११७५) पन यस्स वण्णतो उपट्ठाति, तं सन्धाय चत्तारि झानानि विभत्तानि। तत्थ धातुवसेन कथितं विपस्सनाकम्मट्ठानं होति, पटिक्कूलवसेन कथितं समथकम्मट्ठानं। तदेतं इध समथकम्मट्ठानमेवा ति।
१७. एवं सत्तधा उग्गहकोसल्लं आचिक्खित्वा १. अनुपुब्बतो, २. नातिसीघतो, ३. नातिसणिकतो, ४. विक्खेपपटिबाहनतो, ५. पण्णत्तिसमतिक्कमनतो, ६. अनुपुब्बमुञ्चनतो, ७. अप्पनातो, ८-१०. तयो च सुत्तन्ता ति एवं दसधा मनसिकारकोसल्लं आचिक्खितब्बं ।
तत्थ अनुपुब्बतो ति। इदं हि सज्झायकरणतो पट्ठाय अनुपटिपाटिया मनसिकातब्बं, न एकन्तरिकाय। एकन्तरिकाय हि मनसिकरोन्तो, यथा नाम अकुसलो पुरिसो द्वत्तिंसपदं निस्सेणिं एकन्तरिकाय आरोहन्तो किलन्तकायो पतति, न आरोहनं सम्पादेति; एवमेव भावनासम्पत्तिवसेन अधिगन्तब्बस्स अस्सादस्स अनधिगमा किलन्तचित्तो पतति, न भावनं सम्पादेति। (१)
नीचे, ऊपर, चारों ओर से इससे परिच्छिन्न है-इसे सभागपरिच्छेद समझना चाहिये। केश रोम नहीं है, रोम भी केश नहीं हैं-यों उनके भिन्न होने के अनुसार विसभागपरिच्छेद मानना चाहिये। (७)
यो सात प्रकार के उद्ग्रह-कौशल बतलाने वाले को यह कर्मस्थान अमुक सूत्र में प्रतिकूल के रूप में कहा गया है, अमुक में धातु के रूप में'-ऐसा जानकर (ही) बतलाना चाहिये। क्योंकि महासतिपट्ठानसुत्त (दी० नि० २/५२०) में यह प्रतिकूल के रूप में कहा गया है। महाहत्थिपदोपम, महाराहुलोवाद और धातुविभङ्ग (तीनों म० नि० में द्र०) में धातु के रूप में। किन्तु कायगतासतिसुत्त (म० नि० ३/११७५) में उसके लिए ध्यान के चार विभाग किये गये हैं जिसके मन में (केश आदि) स्पष्ट रूप से उपस्थित होते हैं। वहाँ धातुके रूप में बतलाया गया (कर्मस्थान) विपश्यनाकर्मस्थान होता है और प्रतिकूल के रूप में कहा गया कर्मस्थान है शमथकर्मस्थान।
१७. यो सात प्रकार का उद्ग्रहकौशल बताने के बाद दसधा मनसिकारकोसल्लं (दस प्रकार की चिन्तन-कुशलता को) यों बतलना चाहिये-१. क्रमशः, २. न बहुत शीघ्र, ३. न बहुत धीरे, ४. विक्षेपपरिहार से, ५. प्रज्ञप्ति के समतिक्रमण से, ६. क्रमशः परित्याग से, ७. अर्पणा से, और ८ से १० तक तीन सूत्रान्त से।
इसमें, अनुपुब्बतो-जब से पाठ आरम्भ करे, तब से क्रमशः चिन्तन करना चाहिये, छोड़ छोड़कर नहीं। छोड़-छोड़कर चिन्तन करने से उस आनन्द की प्राप्ति नहीं होती जो भावनासम्पत्ति के कारण प्राप्त हो सकता था। अत: उससे मानसिक विश्रान्ति (थकान) हो जाती है और वह भावना करने में असफल हो जाता है, जैसे कि यदि कोई अनार्य बत्तीस डण्डों वाली सीढ़ी पर (एकएक डण्डा) छोड़-छोड़कर चढ़े तो थककर गिर पड़ता है, चढ़ नहीं पाता। (१) 2-7