________________
विसुद्धिमग्गो मनुजे पि हि यागुपत्ते वा भत्तपत्ते वा केसवण्णं किञ्चि दिस्वा 'केसमिस्सकमिदं हरथ नं' ति जिगुच्छन्ति, एवं केसा वण्णतो पटिक्कूला। रत्तिं भुञ्जन्ता पि केससण्ठानं अक्कवाकं वा मकचिवाकं वा छुप्रित्वा पि तथैव जिगुच्छन्ति। एवं सण्ठानतो पटिक्कूला।
तेलमक्खनपुफ्फधूपादिसङ्घारविरहितानं च केसानं गन्धो परमजेगुच्छो होति ततो जेगुच्छतरो अग्गिम्हि पक्खित्तानं । केसा हि वण्णसण्ठानतो अप्पटिक्कूला पि सियुं, गन्धेन पन पटिक्कूला येव। यथा हि दहरस्स कुमारस्स वच्चं वण्णतो हलिद्दिवण्णं, सण्ठानतो पि हलिद्दिपिण्डसण्ठानं, सङ्कारट्ठाने छड्डितं च उद्भुमातककाळसुनखसरीरं वण्णतो तालपक्कवण्णं, सण्ठानतो वट्टेत्वा विस्सट्ठमुदिङ्गसण्ठानं, दाठा पिस्स सुमनमकुलसदिसा ति उभयं पि वण्णसण्ठानतो सिया अप्पटिक्कूलं, गन्धेन पन पटिक्कूलमेव, एवं केसा पि सियुंवण्णसण्ठानतो अपटिक्कूला, गन्धेन पन पटिक्कूला येवा ति।
यथा पन असुचिट्ठाने गामनिस्सन्देन जातानि सूपेय्यपण्णानि नागरिकमनुस्सानं जेगुच्छानि होन्ति अपरिभोगानि, एवं केसा पि पुब्बलोहितमुत्तकरीसपित्तसेम्हादिनिस्सन्देन जातत्ता जेगुच्छा ति। इदं नेसं आसयतो पाटिक्कुल्यं।
इमे च केसा नाम गूथरासिम्हि उद्रुितकण्णिकं विय एकतिंसकोट्ठासरासिम्हि जाता। ते सुसानसङ्कारट्ठानादीसु जातसाकं विय, परिक्खादिसु जातकमलकुवलयादिपुष्पं विय च असुचिट्ठाने जातत्ता परमजेगुच्छा ति। इदं नेसं ओकासतो पाटिक्कुल्यं। (१) . .
वर्ण से भी प्रतिकूल हैं, संस्थान से भी, गन्ध से भी, आश्रय से भी और अवकाश से भी प्रतिकूल हैं।
मन को भाने वाले यवागू या भात के पात्र में केश के रंग जैसा कुछ देखकर-'इसमें केश पड़ा है, इसे ले जाओ'-यों घृणा (जुगुप्सा) करते हैं। यों केश वण्ण से प्रतिकूल हैं। (१)
रात में भोजन करने वाले भी (मन्द प्रकाश में रंग का ज्ञान न हो सकने से) केश की आकृति के मदार के रेशे या मकचि (पटुआ) के रेशे का स्पर्श हो जाने पर भी वैसे ही घृणा करता है। यों, सण्ठान से भी प्रतिकूल हैं। (२) .
तैलमर्दन, पुष्प-धूप आदि से संस्कृत न किये गये केशों की गन्ध अति घृणित होती है, उससे भी अधिक घृणित आग में फेंके गये (केशों) की; क्योंकि केश चाहे वर्ण और आकृति से प्रतिकूल न भी प्रतीत हों, गन्ध से तो प्रतिकूल होते ही हैं। जैसे कि छोटे बच्चे का मल रंग में हल्दी के रंग का, आकार में भी हल्दी की पिण्डी के आकार का होता है, और जैसे घूरे पर फेंके गये काले कुत्ते का फूला हुआ मृत शरीर रंग में पके हुए ताड़ जैसा होता है और आकार में मढ़कर छोड़ दिये गये मृदङ्ग के आकार का, उसकी दाढ़ भी चमेली की कलियों जैसी होती है। यों रंग और आकार दोनों से भी (वह) अप्रतिकूल हो सकता है, किन्तु गन्ध से तो प्रतिकूल ही है। (३)
जैसे कि मलिन स्थान पर गाँव भर के मैले से उत्पन्न, सूप बनाने के लिये पत्ते घृणित और अनुपयोगी होते हैं; वैसे ही केश भी, पीब, रक्त, मूत्र मल, पित्त, कफ आदि के परिपाक से उत्पन्न होने के कारण, घृणित हैं। यह उनकी आसय से (आश्रय से) प्रतिकूलता है। (४)