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- अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
११७ सेय्यथापि पुरिसस्स धावित्वा, पब्बता वा आरोहित्वा, महाभारं वा सीसतो ओरोपेत्वा ठितस्स ओळारिका अस्सासपस्सासा होन्ति, नासिका नप्पहोति, मुखेन अस्ससन्तो पि पस्ससन्तो पि तिट्ठति, यदा पनेस तं परिस्समं विनोदेत्वा न्हत्वा च पिबित्वा च अल्लसाटकं हदये कत्वा सीताय छायाय निपन्नो होति, अथस्स ते अस्सासपस्सासा सुखुमा होन्ति "अस्थि नु खो नत्थी" ति विचेतब्बताकारप्पत्ता; एवमेव इमस्स भिक्खुनो पुब्बे अपरिग्गहितकाले कायो च...पे०...विचेतब्बताकारप्पत्ता होन्ति।।
___ तं किस्स हेतु? यथा हिस्स पुब्बे अपरिग्गहितकाले "ओळारिकोळारिके कायसङ्घारे पस्सम्भेमी" ति आभोगसमन्नाहारमनसिकारपच्चवेक्खणा नत्थि, परिग्गहितकाले पन अत्थि। तेनस्स अपरिग्गहितकालतो परिग्गहितकाले कायसङ्कारो सुखुमो होति। तेनाहु पोराणा
"सारद्धे काये चित्ते च अधिमत्तं पवत्तति। असारद्धम्हि कायम्हि सुखुमं सम्पवत्तती" ति॥
(वि० टु० २/१७) - परिग्गहे पि ओळारिको, पठमज्झानूपचारे सुखुमो। तस्मि पि ओळारिको, पठमज्झाने सुखुमो। पठमज्झाने च दुतियज्झानूपचारे च ओळारिको, दुतियज्झाने सुखुमो। दुतियज्झाने च ततियज्झानूपचारे च ओळारिको, ततियज्झाने सुखुमो। ततियज्झाने च चतुत्थज्झानूपचारे च ओळारिको, ततियज्झाने अतिसुखुमो अप्पवत्तिमेव पापुणाती ति इदं ताव दीघभाणकसंयुत्तभाणकानं मतं।
जैसे कोई पुरुष जब दौड़ने के बाद, या पर्वत पर चढ़ने के बाद, या बहुत बड़े बोझ को सिर पर से उतारने के बाद खड़ा होता है, तब उसके आश्वास-प्रश्वास स्थूल होते हैं, नासिका पर्याप्त नहीं रह जाती, तब वह मुख से भी साँस लेता है और छोड़ता रहता है। किन्तु जब वह उस थकान को मिटाकर स्नान कर एवं (पानी) पीकर तथा हृदयप्रदेश पर भीगा वस्त्र रखकर, शीतल छाया में सोता रहता है, तब वे आश्वास-प्रश्वास इतने सूक्ष्म होते हैं कि विवेचन करना पड़ जाता है कि वे हैं भी या नहीं! इसी प्रकार, यह भिक्षु पहले जब तक कि काय...परिगृहीत नहीं किये रहता है ...पूर्ववत्... विवेचन करना पड़ जाता है।
ऐसा क्यों? जिस प्रकार पहले इसके द्वारा परिगृहीत न होने के समय 'स्थूल कायसंस्कारों को शान्त करूँगा'-यों आभोग (सम्बन्ध), समन्नाहार (प्रतिक्रिया), मनस्कार, प्रत्यवेक्षण नहीं होते, किन्तु परिगृहीत होने के समय होते हैं। इसलिये परिगृहीत न होने के समय की अपेक्षा परिगृहीत होने के समय कायसंस्कार सूक्ष्म होता है। इसीलिये प्राचीन विद्वानों ने कहा है
"काय और चित्त के अशान्त होने पर अधिक प्रवृत्त होता है, काय (एवं चित्त के भी) शान्त होने पर सूक्ष्म प्रवृत्त होता है।
(वैसे तुलनात्मक दृष्टि से) परिग्रह (-काल) में भी स्थूल होता है, (परिग्रह की अपेक्षा) प्रथम ध्यान के उपचार में सूक्ष्म होता है। (वैसे ही) उस (उपचार) में भी स्थूल होता है, प्रथम ध्यान में सूक्ष्म होता है। प्रथम ध्यान और द्वितीय ध्यान के उपचार में स्थूल होता है, द्वितीय ध्यान में सूक्ष्म होता है। द्वितीय ध्यान एवं तृतीय ध्यान के उपचार में स्थूल होता है, तृतीय ध्यान में