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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
१२३ पूरेत्वा “एकं" ति वत्वा ओकिरति। पुन पूरेन्तो किञ्चि कचवरं दिस्वा तं छड्डेन्तो "एकं एकं" ति वदति। एस नयो द्वे द्वे ति आदीसु। एवमेव इमिना पि अस्सासपस्सासेसु यो उपट्टाति, तं गहेत्वा "एकं एकं" ति आदि कत्वा याव "दस दसा" ति पवत्तमानं पवत्तमानं उपलक्खेत्वा व गणेतब्बं । तस्सेवं गणयतो निक्खमन्ता च पविसन्ता च अस्सासपस्सासा पाकटा होन्ति।
___ अथानेन तं दन्धगणनं धमापकगणनं पहाय सीघगणनाय गोपालकगणनाय गणेतब्बं । छेको हि गोपालको सक्खरायो उच्छतेन गहेत्वा रज्जुदण्डहत्थो पातो व वजं गन्त्वा गावो पिट्ठियं पहरित्वा पलिघत्थम्भमत्थके निसिन्नो द्वारप्पत्तं द्वारप्पत्तं येव गाविं एका द्वे ति सक्खरं खिपित्वा गणेति। तियामरत्तिं सम्बाधे ओकासे दुक्खंवुत्थगोगणो निक्खमन्तो निक्खमन्तो अचमचं उपनिघसन्तो वेगेन वेगेन पुञ्जपुञ्जो हुत्वा निक्खमति। सो वेगेन, वेगेन "तीणि चत्तारि पञ्च दसा" ति गणेति येव। - एवं इमस्सा पि पुरिमनयेन गणयतो अस्सासपस्सासा पाकटा हुत्वा सीघं सीघं पुनप्पुनं सञ्चरन्ति । ततोनेन 'पुनप्पुनं सञ्चरन्ती' ति बत्वा अन्तो च बहि च अगहेत्वा द्वारप्पत्तं द्वारप्पत्तं येव गहेत्वा "एको द्वे तीणि चत्तारि पञ्च छ, एको द्वे तीणि चत्तारि पञ्च छ सत्त...पे०...अट्ट... नव...दसा" ति सीघं सीघं गणेतब्बमेव। गणनपटिबद्धे हि कम्मट्ठाने गणनबलेनेव चित्तं एकग्गं होति, अरित्तुपत्थम्भनवसेन चण्डसोते नावाट्ठपनमिव ।
गिनते समय उसे पहले तो रुक रुक कर, धान्य मापने वाले की गणना के समान गिनना चाहिये। धान्य मापने वाला मापक पात्र को भरकर 'एक' यों कहकर उसे खाली कर देता है। फिर से भरते समय यदि कुछ कूड़ा-करकट देखता है तो उसे फेंकते हुए 'एक, एक' यों कहता रहता है (ताकि गिनती में भूल न हो)। ऐसा ही 'दो, दो' के बारे में भी (जानना चाहिये)। वैसे ही इस (भिक्षु) को भी आश्वास प्रश्वास में जो (अधिक स्पष्ट) जान पड़े उसे (ही गणना के विषय रूप में) ग्रहण करते हुए ‘एक, एक'-यों प्रारम्भ कर, जैसे जैसे वे प्रवर्तित हों, उनका उपलक्षण करते हुए ही 'दस, दस' तक गिनना चाहिये। इस प्रकार गिनते रहने पर निकलते एवं प्रवेश करते समय आश्वास-प्रश्वास स्पष्ट जान पड़ते हैं। ____ तब उसे धान्यमापक की गणना के समान रुक रुक कर गिनना छोड़कर, ग्वाले की गणना के समान जल्दी जल्दी गिनना चाहिये। क्योंकि एक चतुर ग्वाला (दुपट्टे आदि के) अञ्चल में कडूड़ लेकर सबेरे ही गोशाला जाता है। हाथ में रस्सी-डण्डा लिये हुए बाड़े के स्तम्भ-शीर्ष पर बैठकर एक एक कर द्वार पर आती हुई गायों के पीठ पर (कङ्कड़) मारते हुए ‘एक, दो' यों कङ्कड़ फेंक फेंक कर गिनता है। रात के तीन प्रहर तक संकीर्ण स्थान में कष्ट से रह चुकी गायों का समूह एक दूसरे को रगड़ते हुए तेजी से निकालता है। (इसलिये) वह 'तीन, चार, पाँच...दस यों जल्दी जल्दी ही गिनता है।
यों यह (भिक्षु) भी जब पूर्वोक्त विधि से गिनता है तब आश्वास-प्रश्वास प्रकट होकर जल्दी जल्दी बार बार आने जाने लगते हैं। तब उसे 'बार बार आ जा रहे हैं'-यों जानकर भीतर एवं बाहर (वालों को) ग्रहण न करते हुए (नासिका के) द्वार पर आये हुओं को ही ग्रहण करते