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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो सण्ठानो। जङ्घत्तचो भत्तपुटकतालपण्णसण्ठानो। ऊरुत्तचो तण्डुलभरितदीघत्थविकसण्ठानो। आनिसदत्तचो उदकपूरितपटपरिस्सावनसण्ठानो। पिट्ठित्तचो फलकोनद्धचम्मसण्ठानो। कुच्छित्तचो वीणादोणिकोनद्धचम्मसण्ठानो। उत्तचो येभुय्येन चतुरस्ससण्ठानो। उभयबाहुत्तचो तूणीरोनद्धचम्मसण्ठानो। पिट्ठिहत्थत्तचो खुरकोससण्ठानो, फणकत्थविकसण्ठानो वा। हत्थङ्गलितचो कुञ्चिककोसकसण्ठानो। गीवत्तचो गलकञ्चकसण्ठानो। मुखत्तचो छिद्दावछिद्दो कीटकुलावकसण्ठानो। सीसत्तचो पत्तत्थविकसण्ठानो ति।
तचपरिग्गण्हकेन च योगावचरेन उत्तरो?तो पट्ठाय उपरिमुखं जाणं पेसेत्वा पठमं ताव मुखं परियोनन्धित्वा ठितचम्मं ववत्थपेतब्बं । ततो नलाटट्ठिचम्म। ततो थविकाय पक्खित्तपत्तस्स च थविकाय च अन्तरेन हत्थमिव सीसट्ठिकस्स च सीसचम्मस्स च अन्तरेन जाणं पेसेत्वा अट्ठिकेन सद्धिं चम्मस्स एकाबद्धभावं वियोजेन्तेन सीसचम्मं ववत्थपेतब्बं । ततो खन्धचम्म। ततो अनुलोमेन पटिलोमेन च दक्खिणहत्थचम्म। अथ तेनेव नयेन वामहत्थचम्म। ततो पिट्ठिचम्मं तं ववत्थपेत्वा अनुलोमेन पटिलोमेन च दक्खिणपादचम्म। अथ तेनेव नयेन वामपादचम्म। ततो अनुक्कमेनेव वत्थि-उदर-हदय-गीवचम्मानि ववत्थपेतब्बानि। अथ
होती है। पैर के पृष्ठभाग की त्वचा बूट (=जूते-पुटबन्ध-उपानह) के आकार की होती है। घुटने की त्वचा भात लपेटे हुए ताड़-पत्र के आकार की, जाँघ की त्वचा चावल से भरी लम्बी थैली के आकार की, जिसे टेककर बैठते हैं, पुढे की त्वचा पानी से भरे, पानी छानने के कपड़े के आकार की, पीठ की त्वचा तख्ते पर मढ़े गये चमड़े के आकार की, हृदय प्रदेश की त्वचा प्रायः
कोर आकार की. दोनों बाहों की त्वचा तरकश पर मढे चमडे के आकार की. हाथ के पष्ठभाग की त्वचा छुरी रखने की थैली के आकार की या कंघी रखने की खोली के आकार की होती है। हाथ की अंगुलियों की त्वचा चाभी रखने की थैली के आकार की, गरदन की त्वचा गले पर लपेटे गये कपड़े के आकार की, मुख की त्वचा क्रिमियों के छेदों से भरे हुए घोंसले के आकार की होती है।
त्वचा पर चिन्तन करने वाले योगी को ऊपरी ओंठ से लेकर मुख के ऊपर की ओर ज्ञान सम्प्रेषित कर (अन्तर्निरीक्षण का विषय बनाकर) ध्यान केन्द्रित कर, सबसे पहले मुख को ढककर स्थित त्वचा का निश्चय करना चाहिये। तत्पश्चात् ललाट की अस्थि की त्वचा का। तत्पश्चात् थैली में रखे पात्र और थैली के बीच हाथ (डालने के) समान, सिर की हड्डी और सिर के चर्म के भीतर ज्ञान को सम्प्रेषित कर, अस्थि के साथ चर्म के भीतर ज्ञान को सम्प्रेषित कर, अस्थि के साथ चर्म के एकाबद्ध (एक साथ बँधे) भाव को (वैचारिक स्तर पर) वियुक्त करते हुए, सिर के चर्म का निश्चय करना चाहिये। उसके बाद कन्धों के चर्म का। फिर अनुलोम प्रतिलोम रूप से दाहिने हाथ के चर्म का। फिर उसी विधि से बाएं हाथ के चर्म का। फिर पीठ के चर्म का निश्चय कर, अनुलोम और प्रतिलोम रूप से दाहिने पैर के चर्म का। फिर उसी विधि से बाएं पैर के चर्म का। फिर क्रमश: वस्ति (मूत्राशय), पेट, हृदय (छाती), ग्रीवा के चर्मों का निश्चय करना चाहिये। फिर ग्रीवा के चर्म के बाद निचली ठुड्डी (जबड़े) के चर्म का निश्चय कर ऊपर नीचे के ओठों तक ले जाकर (चिन्तन-क्रिया को) समाप्त करना चाहिये। यों स्थूल का ग्रहण करने