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विसुद्धिमग्गो
नाम निबद्धो नत्थि, यत्थं सो लोहितं विय सदा तिट्ठेय्य । यदा, पन अग्गिसन्ताप - सुरियसन्तापउतुविकारादीहि सरीरं सन्तपति, तदा उदकतो अब्बूळ्हमत्तविसमच्छिन्नभिसमुळालकुमुदनाळकलापो विय सब्बकेसलोमकूपविवरेहि पग्घरति । तस्मा तस्स सण्ठानं पि केसलोमकूपविवरानं वसेनेव वेदितब्बं। सेदं परिग्गण्हकेन च योगिना केसलोमकूपविवरे पूरेत्वा ठितवसेनेव सेदो मनसिकातब्बो । परिच्छेदतो सेदभागेन परिच्छिन्नो । अयमस्स सभागपरिच्छेदो। विसभागपरिच्छेदो पन केससदिसो येव। (२५)
४४. मेदो ति। थीनसिनेहो। सो वण्णतो फालितहलिद्दिवैष्णो । सण्ठानतो थूलसरीरस्स ताव चम्ममंसन्तरे ठपितहलिद्दिवण्णदुकूलपिलोकितसण्ठानो होति । किससरीरस्स जंघमंसं ऊरुमसं पिट्ठिकण्टकनिस्सितं पिट्ठिमंसं उदरवट्टिमंसं ति एतानि निस्साय दिगुणतिगुणं त्वा ठपितहलिद्दिवण्णदुकूलपिलोतिकसण्ठानो । दिसतो द्वीसु दिसासु जातो। ओकासतो थूलस्स सकलसरीरं फरित्वा किसस्स जंघमंसादीनि निस्साय ठितो । यं सिनेहसङ्कं गतं पि परमजेगुच्छत्ता नेव मुद्धनि तेलत्थाय, न नासतेलादीनं अत्थाय गण्हन्ति । परिच्छेदतो हेट्ठा मंसेन, उपरिचम्मेन, तिरियं मेदभागेन परिच्छिन्नो । अयमस्स सभागपरिच्छेदो। विभागपरिच्छेदो पन केससदिसो येव। (२६)
४५. अस्सू ति। अक्खीहि पग्घरणकआपोधातु । तं वण्णतो विप्पसन्नतिलतेलवण्णं । सण्ठानतो ओकाससण्ठानं । दिसतो उपरिमाय दिसाय जातं । ओकासतो अक्खिकूपकेसु ठितं ।
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में है । अवकाश से-पसीने का स्थान निश्चित नहीं है, जहाँ वह रक्त के समान हमेशा रहे । किन्तु, जब अग्नि सूर्य की गर्मी, ऋतु (जन्य) विकारों (जैसे ज्वर) आदि से शरीर तपता है, तब पानी से निकाल दिये गये और विषम रूप से कटे हुए कुमुदिनी के नाल और कमल-नाल (से रिसते हुए जल) के समान, सभी केश-रोम कूपों के छिद्रों से बहता है। इसलिये उसका संस्थान भी केश-रोम कूपों के छिद्रों के अनुसार ही जानना चाहिये । स्वेद का परिग्रह करने वाले योगी को केश - रोम कूपों के छिद्रों को भरकर स्थित के रूप में ही स्वेद का चिन्तन करना चाहिये । यह इसका सभाग परिच्छेद है। विभाग परिच्छेद केश के समान ही है । (२५)
४४. मेद - गाढ़ी वसा । वह वर्ण से - कटी हुई हल्दी के रंग का होता है। संस्थान सेस्थूल शरीर वालों का (मेद) चर्म ( भीतरी त्वचा) एवं मास के बीच में रखे हुए हल्दी के रंग दुशाले के आकार का होता है। कृश शरीर वालों का (मेद) नरहर के मांस, जाँघ के मांस, रीढ़ पर आधृत पीठ के मांस, उदर को ढकने वाला मांस - इन पर दोहरा तिहरा करके रखे हुए हल्दी के रंग के दुशाले के आकार का होता है। दिशा से - दोनों दिशाओं में होता है । अवकाश से-स्थूल शरीर में सब कहीं, और दुबले पतले शरीर में नरहर के मांस आदि पर टिक कर रहता है। यद्यपि उसे 'स्नेह' (तैल, चिकना ) कहा जाता है, किन्तु अत्यधिक जुगुप्साजनक होने से उसे न तो सिर पर तैल के रूप में, न नाक के मल के रूप में ही ग्रहण किया जाता है। परिच्छेद से- नीचे मांस से, ऊपर चर्म के चारों ओर से मेद-भाग से परिच्छिन्न है । यह इसका सभाग परिच्छेद है। विसभाग परिच्छेद केश के समान ही है । (२६)
४५. अश्रु (आँसू ) - आँखों से बहनेवाला अब्धातु । वह वर्ण से - तिल के स्वच्छ तैल