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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
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उपट्टहन्ति, तेहि च अज्झोहरियमानं पानभोजनादि कोट्ठासरासिम्हि पक्खिपमानमिव उपट्टाति । ५३. अथस्स अनुपुब्बमुञ्चनादिवसेन 'पटिक्कूला पटिक्कूला' ति पुनप्पुनं मनसिकरोतो अनुक्कमेन अप्पना उप्पज्जति । तत्थ केसादीनं वण्णसण्ठानदिसोकासपरिच्छेदवसेन उपट्ठानं उग्गहनिमित्तं सब्बाकारतो पटिक्कूलवसेन उपट्ठानं पटिभागनिमित्तं । तं आसेवतो भावयतो वृत्तनयेन असुभकम्मट्ठानेसु विय पठमज्झानवसेनेव अप्पना उप्पज्जति । सा यस्स एको व कोट्ठासो पाटो होति, एकस्मि वा कोट्ठासे अप्पनं पत्वा पुन अञ्ञस्मि योगं न करोति, तस्स एका व उप्पज्जति ।
५४. यस्स पन अनेके कोठ्ठासा पाकटा होन्ति, एकस्मि वा झानं पत्वा पन अञ्ञस्मि पि योगं करोति, तस्स मल्लकत्थेरस्स विय, कोट्ठासगमनाय पठमज्झानानि निब्बत्तन्ति । सो किरायस्मा दीघभाणकअभयत्थेरं हत्थे गहेत्वा " आवुसो अभय, इमं ताव पञ्हं उग्गण्हाही " ति वत्वा आह—‘“मल्लकत्थे द्वत्तिंसकोट्ठासेसु द्वत्तिंसाय पठमज्झानानं लाभी, सचे रत्तिं एकं दिवा एकं समापज्जति, अतिरेकद्धमासेन पुन सम्पज्जति । सचे पन देवसिकं एकं समापज्जति, अतिरेकमासेन पुन सम्पज्जती" ति ।
एवं पठमज्झानवसेन इज्झमानं पि चेतं कम्मट्ठानं वण्णसण्ठानादीसु सतिबलेन इज्झनतो कायगतासीति वुच्चति ।
५५. इमं च कायगतासतिं अनुयुत्तो भिक्खु अरतिरतिसहो होति, न च नं अरति सहति,
उसके लिये वैसे ही सभी भाग प्रकट होते हैं, जिसके फलस्वरूप घूमते हुए मनुष्य, पशु आदि प्राणी आकार ( आकृतिविशेष) को छोड़कर, (शरीर के) भागों की राशि के रूप में ही जान पड़ते हैं । एवं उनके द्वारा निगला जाता हुआ पेय, भोजन आदि भागों की राशि में डाला हुआ सा जान पड़ता है।
५३. तब उसे “क्रमशः छोड़ने" आदि के अनुसार ( द्र० पृ० ७३) 'प्रतिकूल प्रतिकूल' यों बारबार चिन्तन करते हुए, क्रम से अर्पणा उत्पन्न होती है । वहाँ केश आदि का वर्ण, संस्थान, दिशा, अवकाश, परिच्छेद के अनुसार जान पड़ता उद्ग्रहनिमित्त है । सब प्रकार से प्रतिकूल के रूप में जान पड़ता प्रतिभागनिमित्त है। उसका अभ्यास एवं भावना करते हुए, उक्त प्रकार से अशुभ कर्मस्थान के समान प्रथम ध्यान के रूप में ही अर्पणा उत्पन्न होती है। जिसके लिये एक ही भाग प्रकट होता है, या जो एक भाग में अर्पणा प्राप्त कर, फिर दूसरे के लिए योग नहीं करता, उसे वह (अर्पणा ) एक ही उत्पन्न होती है ।
५४. किन्तु जिसके लिये अनेक भाग प्रकट होते हैं, या जो एक में ध्यान प्राप्त कर दूसरे लिये भी उद्योग करता है, उसे मल्लक स्थविर के समान भागों की संख्या के अनुसार कई प्रथम ध्यान उत्पन्न होते हैं। उन आयुष्मान् ने दीघभाणक अभय स्थविर का हाथ पकड़कर - " आयुष्मन् अभय! पहले इसे सीखो " - ऐसा कहकर (पुनः) कहा - " मल्लक स्थविर बत्तीस भागोंमें बत्तीस ध्यानों के लाभी हैं। यदि रात में एक दिन में दूसरे को प्राप्त करते हैं, तो आधे महीने से भी अधिक समय तक पुन: ( उन्हें) प्राप्त करते रहते हैं । किन्तु यदि वे प्रत्येक दिन (किसी ) एक को प्राप्त करते हैं तो महीने भर से अधिक के बाद फिर प्राप्त करते हैं।"
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