________________
अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
१०९ विसेसाधिगमदिदुधम्मसुखविहारपदट्ठानं आनापानस्सतिकम्मट्ठानं इत्थिपुरिसहत्थिअस्सादिसद्दसमाकुलं गामन्तं अपरिच्चजित्वा न सुकरं भावेतुं, सद्दकण्टकत्ता झानस्स अगामके पन अरजे सुकरं योगावचरेन इदं कम्मट्ठानं परिग्गहेत्वा आनापानचतुत्थज्झानं निब्बत्तेत्वा तदेव पादकं कत्वा सङ्घारे समस्सित्वा अग्गफलं अरहत्तं सम्पापुणितुं, तस्मास्स अनुरूपसेनासनं दस्सन्तो भगवा "अरजगतो वा" आदिमाह।
वत्थुविज्जाचरियो विय हि भगवा। सो यथा वत्थुविज्जाचरियो नगरभूमिं पस्सित्वा सुटु उपपरिक्खित्वा "एत्थ नगरं मापेथा" ति उपदिसति, सोत्थिना च नगरे निविते राजकुलतो महासकारं लभति, एवमेव योगावचरस्स अनुरूपसेनासनं उपपरिक्खित्वा "एत्थ कम्मट्ठानं अनुयुञ्जितब्बं" ति उपदिसति। ततो तत्थ कम्मट्ठानं अनुयुत्तेन योगिना कमेन अरहत्ते पत्ते "सम्मासम्बुद्धो वत सो भगवा" ति महन्तं सक्कारं लभति।
अयं पन भिक्खु दीपिसदिसो ति वुच्चति। यथा हि महादीपिराजा अरजे तिणगहनं वा वनगहनं वा पब्बतगहनं वा निस्साय निलीयित्वा वनमहिंसगोकण्णसूकरादयो मिगे गण्हाति; एवमेव अयं अरञादीसु कम्मट्ठानं अनुयुञ्जन्तो भिक्खु यथाक्कमेन सोतापत्ति-सकदागामिअनागामि-अरहत्तमग्गे चेव अरियफलं च गण्हाती ति वेदितब्बो। तेनाहु पोराणा
"यथा पि दीपिको नाम निलीयित्वा गण्हति मिगे। तथेवायं बुद्धपुत्तो युत्तयोगो विपस्सको।
प्रत्येकबुद्धों और बुद्ध के श्रावकों के विशेषाधिगम एवं दृष्टधर्मसुखविहार का आधार है-की भावना करना स्त्री-पुरुष, हाथी-घोड़े आद के कोलाहल से भरे ग्राम को त्यागे विना सहज नहीं हैकारण यह है कि ध्यान के लिये कोलाहल विघ्न है, किन्तु ग्राम से दूर अरण्य में योगाचार के लिये इस कर्मस्थान को ग्रहण कर आनापान में चतुर्थध्यान को उत्पन्न कर उसे ही आधार बनाकर संस्कारों पर विचार करते हुए अग्रफल अर्हत्त्व को प्राप्त करना सुकर है, इसलिये उसके अनुरूप शयनासन को प्रदर्शित करने के लिये भगवान् ने 'अरण्य में गया हुआ' आदि कहा है।
भगवान् वास्तुकला (भवननिर्माण) के आचार्य के समान है। जैसे वास्तुकला का आचार्य नगर की भूमि को देख भलीभाँति परीक्षण कर “यहाँ नगर बसाओ"-ऐसा निर्देश देता है तथा नगर के सकुशल बस जाने पर राजकुल से अत्यधिक सत्कार प्राप्त करता है; वैसे ही (भगवान्) योगी के अनुरूप शयनासन का परीक्षण कर "यहाँ कर्मस्थान में लगना चाहिये"-यों कहते हैं। तब वहाँ कर्मस्थान में लगे हुए भिक्षु द्वारा, क्रम से अर्हत्त्व प्राप्त कर लेने पर, "वह भगवान् सम्यक्सम्बुद्ध है"-यों माने जाकर, अत्यधिक सत्कार प्राप्त करते हैं।
यह भिक्षु चीता के समान कहा जाता है। जैसे चीतों का राजा जङ्गल में गहन झुरमुट या वन या पर्वत की ओट में छिपकर हिरण या सूअर आदि पशुओं को पकड़ लेता है, वैसे ही वह अरण्य आदि कर्मस्थान में लगा हुआ भिक्षु क्रमशः स्रोतआपत्ति, सकृदागामी, अनागामी, अर्हत् मार्ग एवं आर्यफल को ग्रहण करता है-ऐसा जानना चाहिये।
इसीलिये प्राचीन (पौराण) विद्वानों ने कहा है