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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
१११ कोटिं पटिपादेत्वा। एवं हि निसीदन्तस्स चम्ममंसन्हारूनि न पणमन्ति। अथस्स या तेसं पणमनपच्चया खणे खणे वेदना उप्पजेयुं, ता न उप्पज्जन्ति । तासु अनुप्पज्जमानासु चित्तं एकग्गं होति, कम्मट्टानं न परिपतति, वुद्धिं फातिं उपगच्छति। परिमुखं सतिं उपट्टपेत्वा ति। कम्मट्ठानाभिमुखं सतिं ठपयित्वा। अथ वा परी ति परिग्गहट्ठो, मुखं ति निय्यानट्ठो, सती ति उपट्ठानट्ठो। तेन वुच्चति "परिमुखं सतिं" ति एवं पटिसम्भिदायं (खु० नि०५/२०४) वुत्तनयेन पेत्थ अत्थो दगुब्बो। तत्रायं सङ्केपो-परिग्गहितनिय्यानसतिं कत्वा ति।।
६०. सो सतो व अस्ससति, सतो व पस्ससती ति। सो भिक्खु एवं निसीदित्वा एवं च सतिं उपट्ठपेत्वा तं सतिं अविजहन्तो, सतो एव अस्ससति, सतो एव पस्ससति । सतोकारी होती ति वुत्तं होति। इदानि येहाकारेहि सतोकारी होति, ते दस्सेतुं दीर्घ वा अस्ससन्तो ति
आदिमाह । वुत्तं हेतं पटिसम्भिदायं-"सो.सतो व अस्ससति, सतोव पस्ससती"ति। एतस्सेव विभने
.."बत्तिंसाय आकारेहि सतोकारी होति। दीघं अस्सासवसेन चित्तस्स एकग्गतं अविक्खेपं पजानतो सति उपट्ठिता होति। ताय सतिया तेन आणेन सतोकारी होति दीर्घ पस्सासवसेन...पे०...पटिनिस्सग्गानुपस्सी अस्सासवसेन । पटिनिस्सग्गानुपस्सी पस्सासवसेन'
आभुजित्वा-बाँधकर । उजु कायं पणिधाय-शरीर को सीधा रखते हुए, अट्ठारह रीढ़ की हड्डियों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक (सीधा रखते हुए)। ऐसे बैठने पर इसके चर्म मांस स्नायु झुकते नहीं हैं। अतः, उनके झुके रहने पर हर समय जो वेदनाएँ (शारीरिक कष्ट या असुविधा के अनुभव) उत्पन्न होते हैं, वे (वैसी स्थिति में) उत्पन्न नहीं होती। उनके न उत्पन्न होने पर चित्त एकाग्र होता है, कर्मस्थान छूटता नहीं, वृद्धि एवं स्फीत भाव को प्राप्त होता है। परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वाकर्मस्थान की ओर स्मृति को स्थिर रखकर। अथवा-'परि' का अर्थ है परिग्रह । 'मुख' का अर्थ निर्याण (बाहर जाना) और 'सति' का अर्थ है उपस्थान (सजग, उपस्थित रहना)। इसलिये कहा गया है-"परिमुखं सति"। यों तो पटिसम्भिदा (खु० नि० ५/२०४) में बताये गये प्रकार से भी यहाँ अर्थ लगाया जा सकता है। संक्षेप यह है-निर्याण स्मृति को परिगृहीत करके।
६०. सो सतो व अस्ससति सतो व पस्ससति-वह भिक्षु यों बैठकर, और इस प्रकार स्मृति को उपस्थित करके, उस स्मृति को न छोड़ते हुए, स्मृति के साथ ही श्वास लेता है, स्मृति के साथ ही श्वास छोड़ता है। अभिप्राय यह है कि वह स्मृति के साथ (साँस लेने छोड़ने का कार्य) करने वाला होता है। अब जिन आकारों में (=जिस प्रकार) वह स्मृति के साथ करने वाला होता है, उन्हें प्रदर्शित करते हुए 'दीर्घ वा अस्ससन्तो' आदि कहा गया है। क्योंकि पटिसम्भिदा में कहा गया है-"वह स्मृति के साथ ही साँस लेता है, स्मृति के साथ ही साँस छोड़ता है।" इसी के विभङ्ग (व्याख्या) में- .
"बत्तीस आकार में स्मृति के साथ करने वाला होता है। लम्ब साँस लेने से, चित्त की एकाग्रता, अविक्षेप को जानते हुए, स्मृति उपस्थित रहती है। उस स्मृति और उस ज्ञान के द्वारा, १, १. विनयनयेन अन्तो उद्वितससनं अस्सासो, बहि उद्रुितससनं पस्सासो।सुत्तनमनयेन पन बहि उट्ठहित्वापि
अन्तोससनतो अस्सासो, अन्तो उट्ठहित्वा पि बहि ससनतो पस्सासो।