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विसुद्धिमग्गो
उप्पन्नं अरतिं अभिभूय्य अभिभुय्य विहरति, भयभेरवसहो होति, न च नं भयभेरवं सहति, उप्पन्नं भयभेरवं अभिभुय्य अभिभुय्य विहरति, खमो होति सीतस्स उपहस्स... पे०... पाणहरानं - अधिवासकजातिको होति, केसादीनं वण्णभेदं निस्साय चतुन्नं झानानं लाभी होति, छ अभिज्ञा पटिविज्झति । (म० नि० ३ / ११८४)
तस्मा हवे अप्पमत्तो अनुयुञ्जेथे पण्डितो । एवं अनेकानिसंसं इमं कायगतासतिं ति ॥
इदं कावगतासतियं वित्थारकथामुखं ॥
९. आनापानस्सतिकथा
५६. इदानि यं तं भगवता "अयं पि खो, भिक्खवे, आनापानस्सतिसमाधि भावतो बहुलीको सन्तो चैव पणीतो च असेचनको च सुखो च विहारो, उप्पन्नुप्पन्ने च पापके अकुसले धम्मे ठानसो अन्तरधापेति वूपसमेती" ति एवं पसंसित्वा " कथं भावितो च, भिक्खवे, आनापानस्सतिसमाधि, कथं बहुलीको सन्तो चेव पणीतो च असेचनको च सुखो च विहारो, उप्पनुप्पन्ने च पापके अकुसले धम्मे ठानसो अन्तरधापेति वूपसमेति ? इध, भिक्खवे, भिक्खु अरञ्ञगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञ्ञागारगतो वा निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्टपेत्वा । सो सतो व अस्ससति, सतो व
यों प्रथम ध्यान के रूप में सिद्ध होने पर भी, क्योंकि यह कर्मस्थान वर्ण, संस्थान आदि की स्मृति के बल से सिद्ध होता है, अतः कायगता स्मृति कहा जाता है।
५५. इस कायगता स्मृति में लगे हुए भिक्षु पर अरति (उदासी) एवं रति (राग) का प्रभाव नहीं पड़ता। अरति उसे प्रभावित नहीं कर पाती । उत्पन्न हो चुकी अरति को अभिभूत करते हुए विहरता है; भय की भयानकता से अप्रभावित रहता है, भय-भयानकता उसे प्रभावित नहीं कर पाती, वह उत्पन्न भय-भयानकता को अभिभूत करते हुए साधना करता है; सर्दी गर्मी के प्रति सहनशील होता है... पूर्ववत्... मर्मान्तक पीड़ाओं को स्वीकार करने वाला होता है, केश आदि के वर्ण-भेद के सहारे चारों ध्यानों का लाभी होता है, छह अभिज्ञाओं को प्राप्त करता है। इसलिये ऐसी अनेक गुणों वाली इस कायगता स्मृति की प्राप्ति हेतु बुद्धिमान् प्रमादरहित होकर उद्योग करे ॥ यह कायगता स्मृति की विस्तृत व्याख्या है ॥
९. आनापानस्मृति
५६. अब, जिसकी भगवान् ने “भिक्षुओ! यह आनापान स्मृति-समाधि भावना करने पर, बढ़ाने पर, शान्त, प्रणीत (उत्तम), अमिश्रित ( असेचनक) एवं सुखविहार है; वह उत्पन्न होने वाले बुरे एवं हानिकारक धर्मों की पूरी तरह अन्तर्ध्यान कर देती है, शान्त कर देती है" - इस प्रकार प्रशंसा करके यों (अधोलिखित) सोलह वस्तुओं वाली (चार) अनुपश्यनाओं में चार चतुष्कों के अनुसार सोलह स्थान (= आधार) वाले आनापानस्मृति - कर्मस्थान का निर्देश किया है, उसकी भावना (विधि के) निर्देश (कर्मस्थान के अशेष विस्तार) का प्रसङ्ग आ गया है।
" भिक्षुओ ! कैसे भावना की गयी, बढ़ाई गयी आनापानस्मृति समाधि, किस प्रकार बढ़ाने