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विसुद्धिमग्गो सण्ठानतो ओकाससण्ठानो, फेणसण्ठानो ति पि वत्तुं वट्टति। दिसतो उपरिमाय दिसाय जातो।
ओकासतो उभोहि कपोलपस्सेहि ओरुय्ह जिव्हाय ठितो। न चेस एत्थ सदा सन्निचितो हुत्वा तिट्ठति। यदा पन सत्ता तथारूपं आहारं पस्सन्ति वा सरन्ति वा, उण्हतित्तकटुकलोणम्बिलानं वा किञ्चि मुखे ठपेन्ति, यदा वा नेसं हदयं आगिलायति, किस्मिञ्चिदेव वा जिगुच्छा उप्पज्जति, तदा खेळो उप्पज्जित्वा उभोहि कपोलपस्सेहि ओरुव्ह जिव्हाय सण्ठाति । अग्गजिव्हाय चेस तनुको होति, मूलजिव्हाय बहलो। मुखे पक्खितं च पुथुकं वा तण्डुलं वा अखं वा किञ्चि खादनीयं नदीपुलिने खतकूपकसलिलं विय परिक्खयं अगच्छन्तो व तेमेतुं समत्थो होति। परिच्छेदतो खेळभागेन परिच्छिन्नो। अयमस्स सभागपरिच्छेदो। विसभागपरिच्छेदो पन केससदिसो येव। (२९)
४८. सिङ्घाणिका ति। मत्थलुङ्गतो पग्घरणकअसुचि। सा वण्णतो तरुणतालट्ठिमिञ्जावण्णा । सण्ठानतो ओकाससण्ठाना। दिसतो उपरिमाय दिसाय जाता। ओकासतो नासापटे पूरेत्वा ठिता। न चेसा एत्थ सदा सन्निचिता हुत्वा तिट्ठति। अथ खो यथा नाम पुरिसो पदुमिनिपत्ते दधिं बन्धित्वा हेट्ठा कण्टकेन विज्झय्य, अथानेन छिद्देन दधिमुत्तं गळित्वा बहि पतेय्य; एवमेव यदा सत्ता रोदन्ति, विसभागाहारउतुवसेन वा सञ्जातधातुखोभा होन्ति, तदा अन्तो सीसतो पूतिसेम्हभावं आपन्नं मत्थलुङ्ग गळित्वा तालुमत्थकविवरेन ओतरित्वा नासापुटे
का होता है। संस्थान से-अवकाश के आकार का है। फेन के आकार का भी कहा जा सकता है। दिशा से-ऊपरी दिशा में होता है। अवकाश से दोनों ओर के कपोलों से (स्पर्श करती हुई) नीचे आनेवाली जिह्वा पर रहता है। वह वहाँ निरन्तर एकत्र होकर नहीं रहता। जब प्राणी वैसे (मिर्च आदि) आहार को देखते या स्मरण करते हैं, या गर्म, तीते, केड़ए, नमकीन, खट्टे में से किसी को मुख में रखते हैं, या जब उनका जी मिचलाता है, या किसी के भी प्रति जुगुप्सा उत्पन्न होती है, तब थूक उत्पन्न होकर दोनों ओर के कपोलों से नीचे उतर कर जीभ पर ठहरता है। जीभ के अगले भाग पर यह पतला होता है, जीभ के मूल भाग पर गाढ़ा। मुख में डाले गये धान या चावल या और किसी वस्तु को, नदी के तट पर खोदे गये कुएँ के पानी के समान, निरन्तर भिगोने में समर्थ होता है। परिच्छेद से-थूक के भाग से परिच्छिन्न है। यह इसका सभाग परिच्छेद है। विसभाग परिच्छेद केश के समान ही है। (२९)
४८. सिंहाणक (पोंटा)-नाक से बहने वाली गन्दगी। वह वर्ण से-अधपके (तरुण) ताड़फल की गुठली की गरी के रंग का होता है। संस्थान से-अवकाश के आकार का होता है। दिशा से-ऊपरी दिशा में होता है। अवकाश से-नासिकापुटों को भरकर स्थित है। और वह वहाँ हमेशा एकत्र होकर नहीं रहता। अपितु जैसे कि कोई व्यक्ति कमलिनी के पत्ते में दही बाँधकर नीचे की ओर से काँटे से छेद कर दे, और उस छेद से दही का पानी छनकर बाहर गिरे; वैसे ही जब प्राणी रोते हैं, या विषम आहार अथवा ऋतु के कारण उनकी धातु कुपित होती है, तब सिर के भीतर गन्दे कफ के रूप में मस्तिष्क (की गन्दगी) रिसकर तालु और मस्तक
१. दधिमुत्तं ति। दधिनो विस्सन्दनअच्छरसो।