________________
७८
विसुद्धिमग्गो इति इदं सत्तविधं उग्गहकोसल्लं सुग्गहितं कत्वा इदं च दसविधं मनसिकारकोसलं सुटु ववत्थपेत्वा तेन योगिना उभयकोसल्लवसेन कम्मट्ठानं साधुकं उग्गहेतब्बं ।
सचे पनस्स आचरियेन सद्धिं एकविहारे येव फासु होति, एवं वित्थारेन अकथापेत्वा कम्मट्ठानं सुटु ववत्थपेत्वा कम्मट्ठानं अनुयुञ्जन्तेन विसेसं लभित्वा उपरूपरि कथापेतब्बं । अञत्थ वसितुकामेन यथावुत्तेन विधिना वित्थारतो कथापेत्वा पुनप्पुनं परिवत्तेत्वा सब्बं गण्ठिट्टानं छिन्दित्वा पथवीकसिणनिद्देसे वुत्तनयेनेव अननुरूपं सेनासनं पहाय अनुरूपे विहारे वसन्तेन खुद्दकपलिबोधुपच्छेदं कत्वा पटिक्कूलमनसिकारे परिकम्म कातब्बं।
___ करोन्तेन पन केसेसु ताव निमित्तं गहेतब्बं । कथं ? एकं वा द्वे वा केसे लुञ्चित्वा हत्थतले ठपेत्वा वण्णो ताव ववत्थपेतब्बो। छिनट्ठाने पि केसे ओलोकेतुं वट्टति । उदकपत्ते वा यागुपत्ते वा ओलोकेतुं पि वट्टति येव। काळककाले दिस्वा काळका ति मनसिकातब्बा, सेतकाले सेता ति। मिस्सककाले पन उस्सदवसेन मनसिकातब्बा होन्ति। यथा च केसेसु, एवं सकले पि तचपञ्चके दिस्वा व निमित्तं गहेतब्बं ॥
बोझङ्गकोसल्लं (बोध्यङ्ग-कौशल) तो अर्पणा-कौशल (द्र० पृथ्वी कसिणनिर्देश, चतुर्थ परिच्छेद) के प्रसङ्ग में इस प्रकार प्रदर्शित किया ही जा चुका है-"भिक्षुओ, इसी प्रकार, जिस समय चित्त गिरा-गिरा सा होता है, वह समय प्रश्रब्धि-सम्बोध्यङ्ग की भावना की दृष्टि से अनुपयुक्त है।" (म० नि० ३/११७३) (१०)
यों, इस सप्तविध उद्ग्रहकौशल को भलीभाँति ग्रहण कर, एवं इस दशविध मनस्कारकौशल का अच्छी तरह से निश्चय कर, उस योगी को दोनों कौशलों के अनुसार कर्मस्थान को उचित ढंग से सीखना चाहिये।
यदि उसे आचार्य के साथ एक ही विहार में रहने में सुविधा हो, तो वह (भिक्षु कर्मस्थान के विषय में आचार्य से) विस्तार सहित (एक ही साथ) न कहलवाकर, (कर्मस्थान का) अच्छी तरह निश्चय कर, उसमें लग जाय और (क्रमशः) विशेष (अवस्थाओं) की प्राप्ति करते हुए आगे आगे कहलवाता जाय। जो कहीं अन्यत्र रहना चाहे तो उसे चाहिये कि यथोक्त विधि से एकत्रही साथ विस्तार से कहलवाकर, बार बार आकर सन्देहों का निराकरण करते हुए; पृथ्वीकसिण निर्देश में बतलायी गयी विधि के अनुसार ही, प्रतिकूल शयनासन का परित्याग कर अनुकूल शयनासन में रहे तथा छोटे छोटे पलिबोधों (बाधाओं) को नष्ट करते हुए प्रतिकूल (कर्मस्थान) के चिन्तन का प्रयास प्रारम्भ करे।
ऐसा करने वाले को पहले केशों में निमित्त ग्रहण करना चाहिये। कैसे? एक या दो केश उखाड़कर हथेली पर रखकर पहले वर्ण (रंग) का निश्चय करना चाहिये। जहाँ केश काटे जाते हों, वहाँ भी (जाकर) केशों का निरीक्षण किया जा सकता है। जल-भरे पात्र में या यवागू के पात्र में भी देखा जा सकता है। जब वे देखने में काले लगें तब 'काले हैं'-यों चिन्तन करना चाहिये, सफेद लगें तो 'सफेद हैं'-इस प्रकार। मिश्रित रंग के लगें तो जो रंग प्रमुख हो उसके अनुसार चिन्तन करना चाहिये। जैसा कि केशों के बारे में है, वैसे ही सभी त्वचापञ्चक को देखकर निमित्त का ग्रहण करना चाहिये।