________________
विसुद्धिमग्गो
मनसिकातब्बानि - कालेन कालं समाधिनिमित्तं मनसिकातब्बं, कालेन कालं पग्गहनिमित्तं मनसिकातब्बं, कालेन कालं उपेक्खानिमित्तं मनसिकातब्बं । सचे, भिक्खवे, अधिचित्त - मनुयुत्तो भिक्खु एकन्तं समाधिनिमित्तं येव मनसिकरेय्य, ठानं तं चित्तं कोसज्जाय संवत्तेय्य । सचे, भिक्खवे, अधिचित्तमनुयुत्तो भिक्खु एकन्तं पग्गहनिमित्तं येव मनसिकरेय्य, ठानं तं चित्तं उद्धच्चाय संवत्तेय्य । सचे, भिक्खवे, अधिचित्तमनुयुत्तो भिक्खु एकन्तं उपेक्खानिमित्तं येव मनसिकरेय्य, ठानं तं चित्तं न सम्मा समाधियेय्य आसवानं खयाय । यतो च खो, भिक्खवे, अधिचित्तमनुयुत्तो भिक्खु कालेन कालं समाधिनिमित्तं पग्गहनिमित्तं उपेक्खानिमित्तं मनसिकरोति, तं होति चित्तं मुदुं च कमञ्जं चं पभस्सरं च, न च पभङ्गु, सम्मा समाधियति
आसवानं खयाय ।
सेय्यथापि, भिक्खवे, सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा उक्कं बन्धति, उक्कामुखं आलिम्पेति, उक्कामुखं आलिम्पेत्वा सण्डासेन जातरूपं गहेत्वा उक्कामुखे पक्खिपित्वा कालेन कालं अभिधमति, कालेन कालं उदकेन परिप्फोसेति, कालेन कालं अज्झपेक्खति । सचे, भिक्खवे, सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा तं जातरूपं एकन्तं अभिधमेय्य, ठान तं जातरूपं डहेय्य । सचे, भिक्खवे, सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा तं जातरूपं एकन्तं उदकेन परिप्फोसेय्य, ठानं तं जातरूपं निब्बायेय्य । सचें, भिक्खवे, सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा तं जातरूपं एकन्तं अज्जुपेक्खेय्य, ठानं तं जातरूपं न सम्मापरिपाकं गच्छेय्य । यतो च खो, भिक्खवे, सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा तं जातरूपं कालेन
७६
" भिक्षुओ, अधिचित्त में लगे हुए भिक्षु को तीन निमित्तों का समय समय पर चिन्तन करना चाहिये; समय समय पर समाधिनिमित्त का चिन्तन करना चाहिये। समय समय पर प्रग्रह ( पकड़कर रखना वीर्य) निमित्त का... समय समय पर उपेक्षानिमित्त का चिन्तन करना चाहिये । यदि भिक्षुओ ! अधिचित्त में लगा हुआ भिक्षु केवल समाधिनिमित्त का ही चिन्तन करे, तो सम्भव है कि वह चित्त आलस्य की ओर ले जाय । यदि भिक्षुओ ! अधिचित्त में लगा हुआ भिक्षु केवल प्रग्रहनिमित्त काही चिन्तन करे, तो सम्भव है कि वह चित्त औद्धत्य की ओर ले जाय । यदि भिक्षुओ ! अधिचित्त
लगा हुआ भिक्षु केवल उपेक्षानिमित्त का ही चिन्तन करे, तो सम्भव है कि आस्रवों के क्षय के लिये वह चित्त सम्यक् रूप से समाधिस्थ न हो । भिक्षुओ ! क्योंकि अधिचित्त में लगा हुआ भिक्षु समय समय पर समाधिनिमित्त, प्रग्रहनिमित्त एवं उपेक्षानिमित्त का चिन्तन करता है, इसलिये ( उसका ) वह चित्त मृदु, कर्मण्य और प्रभास्वर होता है।
"भिक्षुओ, जैसे सुनार या सुनार का कोई शिष्य (सहायक) भट्ठी तैयार करता है, भट्ठी मुख में अग्नि जलाता है, चिमटे से अपरिष्कृत सोने को पकड़कर भट्ठी के मुख में डालकर समय-समय पर फूँकता (दहकाता) है, समय-समय पर पानी छिड़कता है, समय समय पर उसे यही रहने देता है। भिक्षुओ ! यदि वह सुनार या सुनार का शिष्य उस अपरिष्कृत सोने पर केवल फूँक मारता रहे, तो सम्भव है कि वह सोना भस्म हो जाय। भिक्षुओ ! यदि वह सुनार या... केवल पानी ही छिड़कता रहे, तो सम्भव है कि वह सोना ठण्डा पड़ जाय । यदि भिक्षुओ ! वह सुनार या... सोने को वैसे ही छोड़ दे, तो सम्भव है कि वह सोना ठीक से परिष्कृत न हो । भिक्षुओ ! क्योंकि सुनार या उसका शिष्य उस अपरिष्कृत सोने को समय-समय पर फूँकता है, समय- समय