________________
विसुद्धिमग्गो अनुपुब्बतो मनसिकरोन्तेना पि च नातिसीघतो मनसिकातब्बं । अतिसीघतो मनसिकरोतो हि यथा नाम तियोजनं मग्गं पटिपज्जित्वा ओक्कमनविस्सज्जन' असल्लक्खेत्वा सीघेन जवेन सत्तक्खत्तुं पि गमनाममनं करोतो पुरिसस्स किञ्चापि अद्धानं परिक्खयं गच्छति, अथ खो पुच्छित्वा व गन्तब्बं होति; एवमेव केवलं कम्मट्ठानं परियोसानं पापुणाति, अविभूतं पन होति, न विसेसं आवहति, तस्मा नातिसीघतो मनसिकातब्बं । (२) .
___यथा च नातिसीघतो, एवं नातिसणिकतो पि। अतिसणिकतो मनसिकरोतो हि यथा नाम तदहेव तियोजनमग्गं गन्तुकामस्स पुरिसस्स अन्तराम, रुक्खपब्बततळाकादीसु विलम्बमानस्स मग्गो परिक्खयं न गच्छति, द्वीह-तीहेन परियोसांपेतब्बो होति, एवमेव कम्मट्ठानं परियोसानं न गच्छति, विसेसाधिगमस्स पच्चयो न होति। (३)
विक्खेपपटिबाहनतो ति। कम्मट्ठानं विस्सज्जेत्वा बहिद्धा पुथुत्तारम्मणे चेतसो विक्खेपो पटिबाहितब्बो। अप्पटिबाहतो हि यथा नाम एकपदिकं पपातमग्गं पटिपन्नस्स पुरिसस्स अक्कमनपदं असल्लक्खेत्वा इतो चितो च विलोकयतो पदवारो विरज्झति, ततो सतपोरिसे पपाते पतितब्बं होति; एवमेव बहिद्धा विक्खेपे सति कम्मट्ठानं परिहायति परिधंसति। तस्मा विक्खेपपटिबाहनतो मनसिकातब्बं। (४)
क्रमशः चिन्तन करते हुए भी, नातिसीघतो (बहुत जल्दी नहीं) चिन्तन करना चाहिये। बहुत शीघ्र चिन्तन करने से यद्यपि वह कर्मस्थान के अन्त तक पहुँच जाता है, किन्तु उसे (कर्मस्थान) स्पष्ट नहीं होता और न ही उसमें कोई विशिष्टता आ पाती है; वैसे ही जैसे कि तीन योजन लम्बा रास्ता पार करने वाला व्यक्ति यदि इस पर ध्यान न दे कि किधर मुड़ना है किधर नहीं, अपितु सीधे दौड़ते हुए सौ बार भी आय जाय, तो यात्रा समाप्त कर लेने पर भी (फिर जाना पड़े तो) उसे पूछकर ही जाना पड़ता है। इसलिये बहुत शीघ्रता से चिन्तन नहीं करना चाहिये। (२)
जैसे बहुत शीघ्रता से नहीं, वैसे ही नातिसणिकतो (बहुत धीरे-धीरे भी नहीं)। क्योंकि बहुत धीरे धीरे चिन्तन करने वाला कर्मस्थान के अन्त तक नहीं पहुंच पाता, और फलस्वरूप विशिष्टता भी प्राप्त नहीं कर पाता; वैसे ही जैसे कि उसी दिन तीन योजन का मार्ग तय करने का इच्छुक व्यक्ति यदि मार्ग में आये पेड़, पहाड़, तालाब आदि के विशेष ज्ञान के लिये देर लगाने लगे तो मार्ग समाप्त ही न हो और यात्रा में दो तीन दिन लग जाते हैं। (३)
विक्खेपपटिबाहनतो-कर्मस्थान को छोड़ अनेक बाह्य आलम्बनों में चित्त के भटकाव को रोकना चाहिये। यदि न रोका गया तो बाहर भटकने से स्मृतिकर्मस्थान उपेक्षित होकर नष्ट हो जाता है; जैसे कि कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे झरने के (ऊपर ऊपर बने) मार्ग पर आ पहुँचे जिस पर केवल एक ही पैर रखकर खड़े होने या चलने की जगह हो, और वह व्यक्ति अपने पैर पर ध्यान न देकर इधर उधर देखे, तो वह फिसल जाता है और उसे सौ पौरुषमान गहरे प्रपात में गिरना पड़ता है। (४)
१. ओकमनविसजनं ति। क्व? पटिपज्जितब्बविस्सज्जेतब्बे मग्गे।