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छअनुस्सतिनिद्देसो
४१ पि न भिन्नं, तानि परियन्ते छिन्नसाटको विय न खण्डानी ति अखण्डानि। येसं वेमज्झे एकं पि न भिन्नं, तानि मज्झे विनिविद्धसाटको विय न छिद्दानी ति अच्छिद्दानि। येसं पटिपाटिया द्वे वा तीणि वा न भिन्नानि, तानि पिट्ठिया वा कुच्छिया वा उट्ठितेन दीघवट्टादिसण्ठानेन विसभागवण्णेन काळरत्तादीनं अञतरसरीरवण्णा गावी विय न सबलानी ति असबलानि। यानि अन्तरन्तरा न भिन्नानि, तानि विसभागबिन्दुचित्रा गावी विय न कम्मासानी ति अकम्मासानि। अविसेसेन वा सब्बानि पि सत्तविधेन मेथुनसंयोगेन कोधुपनाहादीहि च पापधम्मेहि अनुपहतत्ता अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि। तानि येव तण्हादासब्यतो मोचेत्वा भुजिस्सभावकरणेन भुजिस्सानि। बुद्धादीहि विहि पसत्थत्ता विपसत्थानि। तण्हादिट्ठीहि अपरामट्ठत्ता, केनचि वा 'अयं ते सीलेसु दोसो' ति एवं परामटुं असक्कुणेय्यत्ताय अपरामट्ठानि। उपचारसमाधि अप्पनासमाधिं वा, अथ वा पन मग्गसमाधि फलसमाधिं चा पि संवत्तन्ती ति समाधिसंवत्तनिकानि।
एवं अखण्डतादिगुणवसेन अत्तनो सीलानि अनुस्सरतो "नेवस्स तस्मि समये रागपरियुट्ठितं चित्तं होति। न दोस...पे०...न मोहपरियुट्टितं चित्तं होति। उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति, सीलं आरब्भा", (अ० नि० ३/११) ति पुरिमनयेनेवरे विक्खम्भितनीवरणस्स एकक्खणे झानङ्गानि उप्पज्जन्ति। सीलगुणानं पन गम्भीरताय नानप्पकारगुणा
___ ३९. चाहे गृहस्थ शील हों या प्रव्रजित शील, जो आरम्भ से अन्त तक सर्वथा अखण्डित हैं, वे किनारे से फटे वस्त्र की तरह खण्डित न होने से अखण्ड हैं। जिनके बीच में एक भी खण्डित नहीं है, वे बीच में न छेद वाले कपड़े की तरह छिद्रयुक्त न होने से अच्छिद्द हैं। जो क्रमिक रूप से दो-तीन बार खण्डित नहीं हुए हैं, वे पीठ या पेट पर गोल-गोल काली, लाल आदि रंग-बिरंगी चित्तियों वाली गाय की तरह चितकबरी न होने से असबल (अशबल) हैं। जो बीच-बीच में अन्तर डालकर खण्डित नहीं हुए हैं, वे अनेक प्रकार की बिन्दियों वाली गाय के समान कल्मष (रंग-बिरंगे) न होने से अकम्मास (अकल्मष) हैं।
अथवा, सामान्य रूप में, सभी सात प्रकार के मैथुन-संसर्ग तथा, क्रोध, उपनाह आदि पापधर्मों द्वारा हानि न पहुँचाये जाने से अखण्ड, अछिद्र, अकलङ्क अकम्मास हैं। वे ही तृष्णा की दासता से छुड़ाकर स्वतन्त्र करने वाले हैं, अतः भुजिस्स हैं। बुद्ध आदि विज्ञों द्वारा प्रशंसित होने से विजृपसत्थ (विज्ञप्रशस्त) हैं। तृष्णा तथा (मिथ्या-) दृष्टि से दूषित न होने, या किसी के द्वारा 'तेरे शील में यह दोष है'-इस रूप में दोष न दिये जा सकने से अपरामट्ठ (अपरामृष्ट) हैं। उपचारसमाधि या अर्पणासमाधि, अथवा मार्गसमाधि और फलसमाधि को भी प्राप्त कराने वाले हैं, अतः समाधिसंवत्तनिक (समाधिसंवर्तनिक) हैं। ___यों अखण्डता आदि गुणों के अनुसार शीलों का अनुस्मरण करते हुए योगी का 'उस समय चित्त न तो राग से क्षुब्ध होता है, न द्वेष...पूर्ववत्...न मोह से क्षुब्ध होता है। उस समय शील के प्रति चित्त की गति सीधी सरल ही होती है'-इस प्रकार पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही, शान्त नीवरणों वाले इस (योगी) को एक क्षण में ध्यानाङ्ग उत्पन्न होते हैं। किन्तु शील के गुणों की १. बुद्धानुस्सतियं वुत्तनयेन।