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विसुद्धिमग्गो भगवता अनेकेहि आकारेहि पसंसित्वा "कथं भाविता, भिक्खवे, कायगता सति कथं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा? इध, भिक्खवे, भिक्खु अरञ्जगतो वा" (अं० नि० ३/१७५) ति आदिना नयेन आनापानपब्बं, इरियापथपब्बं, चतुसम्पजञपब्बं, पटिक्कूलमनसिकारपब्बं, धातुमनसिकारपब्बं, नव सिवथिकपब्बानी ति इमेसं चुद्दसन्नं पब्बानं वसेन कायगतासतिकम्मट्ठानं निद्दिटुं, तस्स भावनानिद्देसो अनुप्पत्तो।
तत्थ यस्मा इरियापथपब्बं, चतुसम्पजञपळ, धातुमनसिकारपब्बं–ति इमानि तीणि विपस्सनावसेन वुत्तानि। नव सिवथिकपब्बानि विपस्सनाजाणेसु येव आदीनवानुपस्सनावसेन वुत्तानि । या पि चेत्थ उद्धमातकादीसु समाधिभावना इज्झेय्य, सा असुभनिद्देसे पकासिता येव। अनापानपब्बं पन पटिक्कूलमनसिकारपब्बं च इमानेवेत्थ द्वे समाधिवसेन वुत्तानि । तेसु आनापानपब्बं आनापानस्सतिवसेन विसुं कम्मट्ठानं येव।।
यं पनेतं "पुन च परं, भिक्खवे, भिक्खुइममेव कायं उद्धं पादतला अधो केसमत्थका तचपरियन्तं पूरं नानप्पकारस्स असुचिनो पच्चवेक्खति-अस्थि इमस्मि काये केसा लोमा..पे...मुत्तं" (म० नि० ३/११७७) ति एवं मत्थलुङ्गं अट्ठिमिछुन सङ्गहेत्वा पटिक्कूलमनसिकारवसेन देसितं द्वत्तिंसाकारकम्मट्ठानं, इदमिध कायगता सती ति अधिप्पेतं।
की भगवान् ने अनेक प्रकार से प्रशंसा कर "भिक्षुओ कैसे भावना करने से, कैसे बढ़ाने से कायगतास्मृति अत्यधिक फल देने वाली, अत्यधिक लाभप्रद होती है? भिक्षुओ! यहाँ भिक्षु वन में जाकर अथवा..." (अं० नि० ३/१७५)।
इत्यादि प्रकार से आनापानपर्व, ईर्यापथपर्व, चतुःसम्प्रजन्यपर्व, प्रतिकूलमनस्कारपर्व, धातुमनस्कारपर्व, नौ सीवथिक (श्मशान) पर्व-इन (५+९=१४) चौदह पर्वो (विषय-विभागों) के अनुसार बतलायी गयी है, उस कायगतास्मृति कर्मस्थान की भावना (-विधि) का वर्णन आरम्भ किया जा रहा है।
इनमें, ई-पथपर्व, चतुःसम्प्रजन्यपर्व, धातुमनस्कारपर्व-ये तीन विपश्यना के अनुसार कहे गये हैं (अर्थात् वे विपश्यना से सम्बद्ध हैं)। नौ सीवथिकपर्व विपश्यना-ज्ञान में ही आदीनवअनुपश्यना के अनुसार कहे गये हैं। और जो भी उद्भूमातक आदि (पर) समाधि-भावना यहाँ सूचित हो सकती है, उन पर पीछे अशुभनिर्देश में प्रकाश डाला ही जा चुका है। यहाँ केवल ये दो ही समाधि से सम्बद्ध बतलाये गये हैं-आनापानपर्व और प्रतिकूलमनस्कारपर्व। उनमें से आनापानपर्व 'आनापान स्मृति' के रूप में एक पृथक् कर्मस्थान ही है।
किन्तु जो
"और फिर, भिक्षुओ, भिक्षु इसी काय को तलबे से लेकर मस्तिष्क के केशों तक त्वचा से आच्छादित, नाना प्रकार की गन्दगियों से भरा हुआ यों देखता है-इसी काय में केश, लोम, नाखून, दाँत, त्वचा, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थिमज्जा (बोनमैरो), वृक्क, हृदय, यकृत, क्लोम, प्लीहा, फुस्फुस, आँत, छोटी आँत, उदरस्थ पदार्थ, मल, मस्तिष्क, पित्त, कफ, पीव, रक्त, पसीना, मेद,
आँसू, चर्बी, थूक, पोंटा (नाक का मैल), लसीका (केहुनी आदि जोड़ों में पाया जाने वाला चिपचिपा पदार्थ), मूत्र हैं।" (म० नि० ३/११७७)