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विसुद्धिमग्गो मित्तं उपसङ्कमित्वा इदं कम्मट्ठानं गहेतब्बं । तेनापिस्स कम्मट्ठानं कथेन्तेन सत्तधा उग्गहकोसल्लं, दसधा च मनसिकारकोसल्लं आचिक्खितब्बं ।
तत्थ १. वचसा; २. मनसा, ३. वण्णतो, ४. सण्ठानतो, ५. दिसतो, ६. ओकासतो. ७. परिच्छेदतो ति एवं सत्तधा उग्गहकोसल्लं आचिक्खितब्बं ।
इमस्मि हि पटिक्कूलमनसिकारकम्मट्ठाने यो पि तिपिटको होति, तेनापि मनसिकारकाले पठमं वाचाय सज्झायो कातब्बो। एकच्चस्स हि सज्झायं करोन्तस्सेव कम्मट्ठानं पाकटं होति। मलयवासीमहादेवत्थेरस्स सन्तिके उग्गहितकम्मट्ठानानं द्विनं. थेरानं विय। थेरो किर तेहि कम्मट्ठानं याचितो 'चत्तारो मासे इमं येव सज्झायं करोथा' ति द्वत्तिंसाकारपाळिं अदासि। ते किञ्चापि नेसं द्वे तयो निकाया पगुणा, पदक्खिणग्गहिताय पन चत्तारो मासे द्वत्तिंसाकारं सज्झायन्ता व सोतापना अहेसुं। तस्मा कम्मट्ठानं कथेन्तेन आचरियेन अन्तेवासिको वत्तब्बो"पठमं ताव वाचाय सज्झायं करोही" ति।
करोन्तेन च तचपञ्चकादीनि परिच्छिन्दित्वा अनुलोमपटिलोमवसेन सज्झायो कातब्बो। केसा लोमा नखा दन्ता तचो ति हि वत्वा पुन पटिलोमतो तचो दन्ता नखा लोमा केसा ति वत्तब्बं।
नाना प्रकार की केश लोम आदि गन्दगियों को ही देखता है। अतः कहा है-'इस काय में केश, लोम ...पूर्ववत्... मूत्र है।'
यहाँ यह शब्द-संरचना (पद-सम्बन्ध) के अनुसार वर्णन किया गया है। .
१६. इस कर्मस्थान की भावना के इच्छुक, आरम्भ करने वाले कुलपुत्र को उक्त प्रकार के (द्र०-तृतीय परिच्छेद) कल्याणमित्र के पास जाकर इस कर्मस्थान का ग्रहण करना चाहिये। उस कर्मस्थान का उपदेश देने वाले को भी सात प्रकार के उद्ग्रहकौशल (सीखने में निपुणता) और दस प्रकार के मनस्कारकौशल (चिन्तन करने में कुशलता) को बतलाना चाहिये। ..
इनमें, १. वचन से, २. मन से, ३. वर्ण से, ४. संस्थान से, ५. दिशा से, ६. अवकाश से, ७. परिच्छेद से-यों सत्तधा उग्गहकोसल्ल बतलाना चाहिये।
इस प्रतिकूल (वितृष्णाजनक) के चिन्तनरूपी कर्मस्थान में, जो कि त्रैपिटक (तीन पिटकों में पारङ्गत) हो, उसे भी चिन्तन करते समय सर्वप्रथम वाचाय सज्झायो (बोल-बोल कर पाठ) करना चाहिये। किसी-किसी को तो, मलयवासी महादेव स्थविर के समीप कर्मस्थान ग्रहण करने वाले दो स्थविरों के समान, पाठ करते-करते ही कर्मस्थान स्पष्टरूप में भासित होने लगता है। जब उन दो स्थविरों ने कर्मस्थान की याचना की, तब स्थविर ने 'चार महीनों तक इसी का पाठ करो' यों कहकर बत्तीस आकारों (का निर्देशन करने) वाली पालि को दे दिया। उन (दोनों) ने, यद्यपि वे (क्रमशः) दो और तीन निकायों में पारङ्गत थे फिर भी उनने आचार्य की प्रदक्षिणा कर (कर्मस्थान) ग्रहण किया और चार महीने तक बत्तीस आकार का पाठ किया और उसे करते करते ही स्रोतआपन्न हो गये। इसलिये कर्मस्थान बतलाने वाले आचार्य को शिष्य से कहना चाहिये"पहले बोल-बोलकर पाठ करो।" ..
साथ ही वैसा करने वाले को चाहिये कि त्वचापञ्चक आदि को बाँट-बाँटकर, अनुलोम