________________
अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
५३ यथा हि अहिच्छत्तकमकुळं मत्थकेन पंसुं गहेत्वा व उग्गच्छति, एवं सत्ता जरामरणं गहेत्वा व निब्बत्तन्ति। तथा हि नेसं पटिसन्धिचित्तं उप्पादानन्तरमेव जरं पत्वा पब्बतसिखरतो पतितसिला विय भिज्जति सद्धिं सम्पयुत्तखन्धेहि । एवं खणिकमरणं ताव सह जातिया आगतं। जातस्स पन अवस्सं मरणतो इधाधिप्पेतं मरणं पि सह जातिया आगतं।
तस्मा एस सत्तो जातकालतो पट्ठाय यथा नाम उठ्ठितो सुरियो अत्थाभिमुखो गच्छतेव, गतगतहानतो ईसके पि न निवत्तति । यथा वा नदी पब्बतेय्या सीघसोता हारहारिनी' सन्दते व वत्तते व, ईसकं पि न निवत्तति, एवं ईसकं पि अनिवत्तमानो मरणाभिमुखो व याति। तेन वुत्तं
"यमेकरत्तिं पठमं गब्भे वसति माणवो। अब्भुट्टितो व सो याति स गच्छं न निवत्तती" ति॥
(खु० ३ : १/३५१) एवं गच्छतो चस्स गिम्हाभितत्तानं कुन्नदीनं खयो विय, पातो आपोरसानुगतबन्धानं दुमप्फलानं पतनं विय, मुग्गराभिताळितानं मत्तिकभाजनानं भेदो विय, सुरियरस्मिसम्फुट्ठानं उस्सावबिन्दूनं विद्धंसनं विय च मरणमेव आसन्नं होति। तेनाह
मृत्य तो) जन्म के साथ ही आती हैं (निश्चित हो जाती है) और (कालान्तर में) जीवन का हरण कर लेती है। .
जैसे कि अहिच्छत्रक का फूल सिर पर धूल लिये हुए ही उगता है, वैसे ही उन (सत्त्वों) का प्रतिसन्धिचित्त उत्पत्ति के बाद ही जरा को प्राप्त कर, पर्वत-शिखर से गिरी हुई शिला के समान, स्कन्धों के साथ छिन्न भिन्न हो जाता है। ऐसा क्षणिक मरण तो जन्म के साथ ही आया हुआ है। किन्तु यहाँ जो 'मरण' अभिप्रेत है, वह भी जन्म के साथ ही आया हुआ है; क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु अवश्यम्भावी है।
इसलिये यह सत्त्व जन्म से ही, अल्पमात्र भी पीछे न लौटते हुए मरण की ओर ही जाता है, जैसे कि उगा हुआ सूर्य अस्ताचल की तरफ जाता ही है, जहाँ-जहाँ से जा चुका है वहाँ से थोड़ा-सा भी पीछे नहीं लौटता; अथवा जैसे तेज धार वाली (खर-पतवार सबको) बहा डालने वाली पहाड़ी नदी आगे ही बहती जाती है, थोड़ा सा भी पीछे नहीं लौटती। इसलिये कहा गया
"जिस एक रात में प्राणी सर्वप्रथम गर्भ में वास करता है, वह आगे ही जाता है, पीछे नहीं लौटता॥" (खु० ३ : १/३५१)
इस प्रकार जाते हुए उस (सत्त्व) की मृत्यु ही पास में होती है, जैसे ग्रीष्म में तपती हुई क्षुद्र नदियों का क्षय; जैसे प्रात:काल ही अनुबन्ध (=वृन्त, जहाँ फल डाल से जुड़े होते हैं) के पास रस न पहुंचने से फलों का गिरना, जैसे मुद्गर से पीटे गये मिट्टी के बर्तनों का फूटना, और जैसे सूर्य की किरणों के स्पर्श से ओस की बूंदों का नष्ट होना। इसी लिये कहा है
१. हारहारिनी ति। पवाहे पतितस्स तिणपण्णादिकस्स अतिविय हरणसीला।