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अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो
मंसं खादन्ति, न्हारुनिस्सिता न्हारुं खादन्ति, अट्ठिनिस्सिता अट्ठि खादन्ति, मिञ्जनिस्सिता मि खादन्ति। तत्थेव जायन्ति जीवन्ति मीयन्ति, उच्चारपस्सावं करोन्ति । कायो व नेसं सूतिघरं चेव गिलानसाला च सुसानं च वच्चकुटि च पस्सावदोणिका च । स्वायं तेसं पि किमिकुलानं पकोपेन मरणं निगच्छति येव । यथा च असीतिया किमिकुलानं, एवं अज्झत्तिकानं येव अनेकसतानं रोगानं बाहिरानं च अहिविच्छकादीनं मरणस्स पच्चयानं साधारणो ।
यथा हि चतुमहापथे ठपिते लक्खम्हि सब्बदिसाहि आगता सरसत्तितोमरपासाणादयो निपतन्ति, एवं काये पि सब्बूपद्दवा निपतन्ति । स्वायं तेसं पि उपद्दवानं निपातेन मरणं निगच्छति येव । तेनाह भगवा - "इध, भिक्खवे, भिक्खु दिवसे निक्खन्ते रत्तिया पटिगताय इति पटिसञ्चिक्खति - 'बहुका खो पच्चया मरणस्स, अहि वा डसेय्य, विच्छिको वा मं डसेय्य, सतपदी वा मं डंसेय्य, तेन मे अस्स कालङ्किरिया, सो ममस्स अन्तरायो, उपक्खलित्वा वा पपतेय्यं, भत्तं वा मे भुत्तं ब्यापज्जेय्य, पितं वा मे कुप्पेय्य, सेम्हं वा मे कुप्पेय्य, सत्थका वा मे वाता कुप्पेय्युं, तेन मे अस्स कालङ्किरिया, सो ममस्स अन्तरायो" (अं० नि० ३/३३) ति । एवं कायबहुसाधारणतो मरणं अनुस्सरितब्बं ।
९. आयुदुब्बलतो ति । आयु नामेतं अबलं दुब्बलं । तथा हि सत्तानं जीवितं अस्सासपस्सासूपनिबद्धं चेव इरियापथूपनिबद्धं च सीतुण्हूपनिबद्धं च महाभूतूपनिबद्धं च आहारूपनिबद्धं च ।
तदेतं अस्सासपस्सासानं समवुत्तितं लभमानमेव पवत्तति, बहि निक्खन्तनासिकवाते
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क्रिमि बाहरी त्वचा को खाते रहते हैं । चर्म ( भीतरी त्वचा) में रहने वाले (क्रिमि) चर्म खाते रहते हैं, मांस में रहने वाले मांस..., स्नायु में रहने वाले स्नायु... अस्थि में रहने वाले अस्थि... मज्जा में रहने वाले मज्जा खाते हैं। वहीं जन्म लेते, जीते-मरते हैं, मलमूत्र करते हैं। उनके लिये (हमारा ) शरीर प्रसूति गृह, चिकित्सालय, श्मशान, शौचालय और मूत्र का पात्र है। उन क्रिमियों के प्रकोप से भी यह (शरीर) मर ही जाता है। जैसे अस्सी प्रकार के क्रिमियों के लिये, वैसे ही अनेक आन्तरिक रोगों और बाहरी साँप - बिच्छू आदि मृत्यु के कारणों के लिये यह काय साधारण है। जैसे चौराहे पर रखे हुए लक्ष्य पर सब दिशाओं से आये हुए बाण-बर्छियां, भाले, पत्थर आदि गिरते हैं, वैसे ही शरीर पर सभी उपद्रव गिरते रहते हैं । वह उन उपद्रवों से भी मर ही जाता है। इसलिये भगवान् ने कहा है
"भिक्षुओ, यहाँ भिक्षु दिन बीत जाने पर, रात में यों सोचता है - 'मृत्यु के अनेक कारण हैं। मुझे साँप हँस ले, या बिच्छू काट ले, गोजर डँस ले, उससे मेरी मृत्यु हो जाय और वह (ऐसा होना साधना-मार्ग में) मेरे लिये विघ्तकारी होगा । अथवा लड़खड़ाकर गिर पहूँ, अपच हो जाय, मेरा पित्त कुपित हो जाय, कफ कुपित हो जाय, या मेरा शस्त्रक वात ( मरणासन्न शरीर को शस्त्र के समान काटने वाली वायु) कुपित हो जाय, उससे मैं मर जाऊँ तो वह मेरे लिये विघ्नकारी होगा।'' (अं० ३/३३)। यों काय के बहुसाधारण रूप में मृत्यु का अनुस्मरण करना चाहिये । (४) ९. आयुदुब्बलतो - यह आयु निर्बल, दुर्बल है; क्योंकि सत्त्वों का जीवन श्वास-प्रश्वास पर निर्भर है, तथा ईर्य्यापथ... शीत - उष्ण... महाभूतों और आहार पर निर्भर है।