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विसुद्धिमग्गो "अच्चयन्ति अहोरत्ता जीवितं उपरुज्झति।
आयु खीयति मच्चानं, कुन्नदीनं व ओदकं"॥ (सं०नि०१/१०८) "फलानमिव पक्कानं पातो पपततो भयं। एवं जातान मच्चानं निच्चं मरणतो भयं॥ यथा पि कुम्भकारस्स कतं मत्तिकभाजनं। खुद्दकं च महन्तं च यं पक्कं यं च आमकं। सब्बं भेदनपरियन्तं एवं म चान जीवितं॥ (खु०नि०१/३६०) "उस्सावो व तिणग्गम्हि सुरियस्सुग्गमनं पति। एवमायु मनुस्सानं, मा मं अम्म, निवारया" ति॥
(खु० नि० : ३ : १/२२८) एवं उक्खित्तासिको वधको विय सह जातिया आगतं पनेतं मरणं गीवाय असिं चारयमानो सो वधको विय जीवितं हरति येव, न अहरित्वा निवत्तति। तस्मा सह जातिया आगततो जीवितहरणतो च उक्खित्तासिको वधको विय मरणं पि पच्च्पट्टितमेवा ति एवं वधकपच्चुपट्ठानतो मरणं अनुस्सरितब्बं । (१)
६. सम्पत्तिविपत्तितो ति। इध सम्पत्ति नाम तावदेव सोभति, याव नं विपत्ति नाभिभवति, न च सा सम्पत्ति नाम अत्थि, या विपत्तिं अतिक्कम्म तिटेय्य। तथा हि
सकलं मेदिनिं भुत्वा दत्वा कोटिसतं सुखी। अड्डामलकमत्तस्स अन्ते इस्सरतं गतो॥ तेनेव देहबन्धेन पुचम्हि खयमागते।
"दिन-रात बीत रहे हैं, जीवन निरुद्ध हो रहा है। क्षुद्र नदियों के जल के समान मर्यों (मरणशीलों) की आयु का क्षय हो रहा है।" (सं० नि० १/१०८)
"जिस प्रकार पके हुए फलों को सबेरे ही गिरने का भय रहता है, वैसे ही उत्पन्न हुए प्राणियों को सदैव मरण का भय बना रहता है।
__"जैसे कुम्हार के बनाये हुए मिट्टी के बर्तन-छोटे हों या बड़े, पक्के हों या कच्चे-सब के सब फूट जाने वाले होते हैं, वैसे ही मर्यों का जीवन भी समझना चाहिये। (खु० १/३६०)
"सूर्य निकलने पर तृणों के सिरों पर (पड़ी) ओस की बूंदों के समान मनुष्यों की आयु है। मां, मुझे मत रोको।" (खु० ३ : १/२२८)
यों तलवार उठाये हुए वधिक के समान, उत्पत्ति के साथ आया हुआ यह मरण ग्रीवा पर तलवार चलाते हुए उस वधिक की तरह जीवन को लेकर ही छोड़ता है, बिना लिये नहीं रहता। इसलिये 'जन्म के साथ-साथ आने और जीवन हरण करने से, तलवार उठाये वधिक जैसा मरण भी पास ही है'-इस प्रकार वधिकप्रत्युपस्थान से मरण का अनुस्मरण करना चाहिये।
६. सम्पत्तिविपत्तितो-यहाँ (लोक में) सम्पत्ति तभी तक शोभित होती है, जब तक विपत्ति उस पर प्रभावी नहीं होती। और ऐसी कोई सम्पत्ति नहीं है जो विपत्ति का अतिक्रमण कर बची रहे। वैसे ही-समस्त पृथ्वी का भोग करके, सैकड़ों करोड़ देकर, सुखी रहने वाले का