________________
छअनुस्सतिनिद्देसो
४७ अरियसावको लभति अत्थवेदं, लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोजं, पमुदितस्स पीति जायती" (अं० नि० ३/९) ति वुत्तं, तत्थ 'इति पि सो भगवा' ति आदीनं अत्थं निस्साय उप्पन्नं तुढेि सन्धाय लभति अत्थवेदं ति वुत्तं। पाळिं निस्साय उप्पन्नं तुढेि सन्धाय लभति धम्मवेदं। उभयवसेन लभति धम्मूपसंहितं पामोजं ति वुत्तं ति वेदितब्बं ।
४९. यं च देवतानुस्सतियं देवता आरम्भा ति वुत्तं, तं पुब्बभागे देवता आरब्भ पवत्तचित्तवसेन देवतागुणसदिसे वा देवताभावनिप्फादके गुणे आरब्भ पवत्तचित्तवसेन वुत्तं ति वेदितब्बं।
५०. इमा पन छ अनुस्सतियो अरियसावकानं येव इज्झन्ति । तेसं हि बुद्धधम्मसङ्घगुणा पाकटा होन्ति। ते च अखण्डतादिगुणेहि सीलेहि, विगतमलमच्छेरेन चागेन, महानुभावानं देवतानं गुणसदिसेहि सद्धादिगुणेहि समन्नागता।
___ महानामसुत्ते (अं० नि० ३/८) च सोतापनस्स निस्सयविहारं पुढेन भगवता सोतापन्नस्स निस्सयविहारदस्सनत्थमेव एता वित्थारतो कथिता। - गेधसुत्ते पि "इदं, भिक्खवे, अरियसावको तथागतं अनुस्सरति, इति पि सो भगवा... पे०...उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति, निक्खन्तं मुत्तं वुद्रुितं गेधम्हा। गेधो ति खो, भिक्खवे, पञ्चन्नेतं कामगुणानं अधिवचनं। इदं पि खो, भिक्खवे, आरम्मणं करित्वा एवमिधेकच्चे सत्ता विसुज्झन्ती'" (अं० नि० ३/३९) ति एवं अरियसावकस्स अनुस्सतिवसेन चित्तं विसोधेत्वा उत्तरि परमत्थविसुद्धिअधिगमत्थाय कथिता।
तथागत के प्रति सीधी-सरल ही होती है" (अं० नि० ३/९) आदि कहने के बाद-"महानाम, सरलचित्त आर्यश्रावक को ही अर्थवेद प्राप्त होता है, धर्मवेद प्राप्त होता है, धर्म के अनुपालन से प्रसन्नता होती है, प्रसन्न में प्रीति उत्पन्न होती है" (अं० नि० ३/९)-यह कहा गया है, वहाँ इति पि सो भगवा' आदि के अर्थ के कारण उत्पन्न हुई सन्तुष्टि के विषय में लभति अत्थवेदं-ऐसा कहा गया है। पालि (बुद्धवचन, धर्म) के कारण उत्पन्न हुई सन्तुष्टि के विषय में लभति धम्मवेदं (कहा गया है)। दोनों के विषय में लभति धम्मूपसंहितं पामोजं कहा गया है-ऐसा जानना चाहिये।
४९. और जो देवतानुस्मृति में देवता आरम्भ कहा गया है, वह पहले देवता के प्रति प्रवृत्त चित्त के अनुसार, अथवा देवता के गुणों के समान, देवत्व उत्पन्न करने वाले गुणों के अनुसार कहा गया जानना चाहिये।।
५०. इन छह अनुस्मृतियों में आर्यश्रावक ही सिद्धि प्राप्त करते हैं, क्योंकि उनमें बुद्धधर्म-सङ्ग के गुण प्रकट होते हैं एवं वे अखण्डता आदि गुणों वाले शीलों से, मात्सर्य-मल रहित त्याग से, महानुभाव देवताओं के गुणों के समान श्रद्धा आदि गुणों से युक्त होते हैं। एवं महानामसुत्त (अं० नि० ३/८) में स्रोतआपन के निश्रयविहार के विषय में पूछे जाने पर भगवान् ने स्रोतआपन्न के निश्रय-विहार को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से इन्हें विस्तार से बतलाया है।
गेधसुत्त में भी-"भिक्षुओ, यहाँ आर्यश्रावक तथागत का अनुस्मरण करता है। वह भगवान् ऐसे हैं; क्योंकि वह...पूर्ववत्...उस समय उसका चित्त सीधा-सरल ही होता है, गेध (लोभ) से