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विसुद्धिमग्गो
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४७. तस्मा पुब्बभागे देवतानं गुणे अनुस्सरित्वा अपरभागे अत्तनो संविज्जमाने सद्धादिगुणे अनुस्सरतो चस्स "नेव तस्मि समये रागपरियुट्ठितं चित्तं होति । न दोस...पे..... मोहपरियुट्ठितं चित्तं होति । उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति देवता आरब्भा" (अं० नि० ३/१२) ति पुरिमनयेनेव विक्खम्भितनीवरणस्स एकक्खणे झानङ्गानि उप्पज्जन्ति । सद्धादिगुणानं पन गम्भीरताय नानप्पकारगुणानुस्सरणाधिमुत्तताय वा अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति । तदेतं देवतानं गुणसदिसखद्धादिगुणानुस्सरणवसेन देवतानुस्सतिच्चेव सङ्घं गच्छति।
इमं च पन देवतानुस्सतिं अनुयुत्तो भिक्खु देवतानं पियो होति मनापो, भिय्योसो मत्ताय सद्धादिवेपुल्लं अधिगच्छति, पीतिपामोज्जबहुलो विहरति, उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो पन सुगतिपरायनो होति ।
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तस्मा हवे अप्पमादं कयिराथ सुमेधसो । एवं महानुभावाय देवतानुस्सतिया सदा ति ॥
इदं देवतानुस्सतियं वित्थारकथामुखं ॥
पाकिण्णककथा
४८. यं पन एतासं वित्थारदेसनायं "उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति तथागतं आरब्भा" (अं० नि० ३ / ९ ) ति आदीनि वत्वा "उजुगतचित्तो खो पन, महानाम,
के एवं अपने श्रद्धा आदि गुणों की समानता सूचित करने के लिए ऐसा कहा गया जानना चाहिये, क्योंकि अट्ठकथाओं में यह बल देकर कहा गया है- "देवताओं को साक्षी बनाकर (साधक) अपने गुणों का अनुस्मरण करता है । "
४७. इसलिये (पूर्वोक्त प्रकार से) पहले देवताओं के गुणों का अनुस्मरण कर, बाद में अपने में वर्तमान श्रद्धा आदि गुणों का अनुस्मरण करते हुए उसका चित्त " उस समय न तो राग से क्षुब्ध होता है, न द्वेष... पूर्ववत्...न मोह से क्षुब्ध होता है" (अं० नि० ३ / १२ ) - इस प्रकार पूर्व विधि से ही शान्त हो चुके नीवरणों वाले इस साधक को एक क्षण में ध्यानाङ्ग उत्पन्न हैं। किन्तु श्रद्धा आदि गुणों की गम्भीरता के कारण, या नाना प्रकार के गुणों के अनुस्मरण के प्रति रुचि रहने से अर्पणा नहीं प्राप्त होती, उपचारध्यान ही प्राप्त होता है। दैवी गुणों के समान श्रद्धा आदि गुणों के अनुस्मरण से ( उत्पन्न ) यह ( ध्यान ) 'देवतानुस्मृति' कहलाता है।
इस देवतानुस्मृति में लगा हुआ भिक्षु देवताओं का प्रिय ( = दुलारा) होता है । उसमें श्रद्धा आदि की अपेक्षाकृत अधिकता होती है। वह प्रीति- प्रमोद बहुल होकर साधना करता है। वह उत्तर (मार्ग - फल) न प्राप्त होने पर भी, सुगति अवश्य प्राप्त करता है ।
इसलिये ऐसे महान् गुणों वाली देवतानुस्मृति में बुद्धिमान् सदा प्रमाद से रहित रहे ।
यह देवतानुस्मृति की विस्तृत व्याख्या है ॥
प्रकीर्णककथा
४८. जो इन (अनुस्मृतियों) की विस्तृत देशना में - " उस समय उसके चित्त की गति