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छअनुतिनिद्देसो
धम्मस्स अत्थो विपल्लासं आपज्जति, अन्तरायिका ति वुत्तधम्मानं अन्तरायिकत्ताभावतो, निय्यानिका ति वुत्तधम्मानं निय्यानिकत्ताभावतो । तेन ते दुरक्खातधम्मा येव होन्ति, न तथा भगवतो धम्मस्स अत्थो विपल्लासं आपज्जति । 'इमे धम्मा अन्तरायिका, इमे धम्मा निय्यानिका ' ति एवं वुत्तधम्मानं तथाभावानतिक्कमनतो ति एवं ताव परियत्तिधम्मो स्वाक्खातो ।
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लोकुत्तरधम्मो पन निब्बानानुरूपाय पटिपत्तिया पटिपदानुरूपस्स च निब्बानस्स अक्खातत्ता स्वाक्खातो। यथाह - "सुपञ्ञत्ता खो पन तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा, संसन्दति निब्बानं च पटिपदा च । सेय्यथा पि नाम गङ्गोदकं यमुनोदकेन संसदति समेति, एवमेव सुपञ्ञत्ता खो पन तेन भगवता सावकानं निब्बानगामिनी पटिपदा, संसदति निब्बानं च पटिपदा चा" (दी० नि० २ / १६७ ) ति ।
अरियमग्गो चेत्थ अन्तद्वयं अनुपग़म्म मज्झिमापटिपदाभूतो व " मज्झिमा पटिपदा" ति अक्खातत्ता स्वाक्खातो। सामञ्ञफलानि पटिप्पस्सद्धकिलेसानेव "पटिप्पस्सद्धकिलेसानी" ति अक्खातत्ता स्वाक्खातानि । निब्बानं सस्सतामतताणालेणादिसभावमेव सस्सतादिस भाववसेन अक्खातत्ता स्वाक्खातं ति । एवं लोकुत्तरधम्मो पि स्वाक्खातो । (१)
१९. सन्दिट्टिको ति । एत्थ पन अरियमग्गो ताव अत्तनो सन्ताने रागादीनं अभावं करोन्तेन अरियपुग्गलेन सामं दट्ठब्बो ति सन्दिट्ठिको । यथाह - " रत्तो खो, ब्राह्मण, रागेन
(सु+आख्यात) है, अतः स्वाख्यात है। क्योंकि जैसे दूसरे धर्मावलम्बियों के धर्म में अर्थ का वैपरीत्य होता है, वैसे भगवान् के धर्म में अर्थ का अनर्थ नहीं होता। इसका कारण यह है कि (अन्य धर्मों में जो धर्म बाधा देने वाले बतलाये जाते हैं, वे वास्तव में बाधा देने वाले नहीं होते और जो धर्म निर्वाण तक पहुँचाने वाले कहे जाते हैं, वे निर्वाण तक पहुँचाने वाले नहीं होते। अतः वे मिथ्या (गलत) प्रकार से बतलाये गये धर्म ही होते हैं। भगवान् के धर्म में इस तरह अर्थ का अनर्थ नहीं होता। "अमुक धर्म विघ्नकारक हैं, अमुक निर्वाण की ओर ले जाते हैं" ऐसे कहे ये धर्म, क्योंकि वैसे ही होते हैं, अतएव पर्याप्ति धर्म स्वाख्यात है।
लोकोत्तर धर्म स्वाख्यात है, क्योंकि निर्वाण के अनुरूप मार्ग एवं मार्ग के अनुरूप निर्वाण बताया गया है। जैसा कि कहा है- "उन भगवान् ने श्रावकों को निर्वाणगामिनीप्रतिपदा ठीक से बतलायी है, निर्वाण और मार्ग में अनुकूलता है । यथा गङ्गाजल यमुनाजल में मिल जाता है। एकरूप हो जाता है, वैसे ही भगवान् ने ... पूर्ववत्... अनुकूलता है। " ( दी० २/१६७)
तथा, आर्यमार्ग दो अन्तों (शाश्वत, उच्छेद आदि) को त्याग, मध्यमा प्रतिपदा रूप है, तथा उसे 'मध्यमा प्रतिपदा' कहा भी जाता है; इसलिये (जैसा है वैसा ही कहे जाने से) स्वाख्यात है । श्रामण्य के फल शान्त क्लेशों वाले हैं, एवं उन्हें " शान्त हो चुके क्लेशों वाला" ही कहा जाता है, अतः स्वाख्यात है। निर्वाण स्वभावतः शाश्वत ( अविनाशी), अमृत, त्राण (उद्धार) शरण ( लेण) है, (और उसे) शाश्वत आदि स्वभाव वाला कहा भी जाता है, अतः स्वाख्यात है। इस प्रकार, लोकोत्तर धर्म भी स्वाख्यात है । (१)
१९. सन्दिट्टिक (सान्दृष्टिक) – क्योंकि यहाँ आर्यमार्ग, स्वचित्तसन्तान में राग आदि का
१. अन्तद्वयं ति । सस्सतुच्छेदं कामसुखअत्तकिलमथानुयोगं, लीनुद्धच्चं, पतिट्ठानायूहनं ति एवंपभेदं अन्तद्वयं ।