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छअनुस्पतिनिद्देसो
अपि च, स्वाक्खाते धम्मविनये यथानुसिद्धं पटिपन्नत्ता पि अपण्णकपटिपदं पटिपन्नत्ता
पिप्पटिपन्नो ।
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२८. मज्झिमाय पटिपदाय अन्तद्वयं अनुपगम्म पटिपन्नत्ता कायवचीमनोवङ्ककुटिलजिम्हदोसप्पहानाय पटिपन्नत्ता च उजुप्पटिपन्नत्ता च उजुप्पटिपन्नो ।
२९. ञयो वुच्चति निब्बानं । तदत्थाय पटिपन्नत्ता आयप्पटिपन्नो ।
३०. यथा पटिपन्ना सामीचिपटिपन्नारहा होन्ति, तथा पटिपन्नत्ता सामीचिप्पटिपन्नो । ३१. यदिदं ति । यानि इमानि । चत्तारि पुरिसयुगानी ति । युगलवसेन पठममग्गट्ठो फलट्ठो ति इदमेकं युगलं ति एवं चत्तारि पुरिसयुगलानि होन्ति । अट्ठ पुरिसपुग्गला ति । पुरिसपुग्गला होन्ति । एत्थ च पुरिसो ति वा पुग्गलो ति वा एकत्थानि एतानि पदानि । वेनेय्यवसेन पनेतं वृत्तं । एस भगवतो सावकसंघो ति । यानिमानि युगवसेन चत्तारि पुरिसयुगानि, पाटिएक्कतो अट्ठ पुरिसपुग्गला, एस भगवतो सावकसङ्घो ।
३२. आहुनेय्यो ति आदीसु, आनेत्वा हुनितब्बं ति आहुनं । दूरतो पि आनेत्वा सीलवन्तेसु दातब्बं ति अत्थो । चतुन्नं पच्चयानमेतं अधिवचनं । तं आहुनं पटिग्गहेतुं युत्तो तस्स महफलकरणतो ति आहुनेय्यो ।
अथ वा दूरतो पि आगन्त्वा सब्बसापतेय्यं पि एत्थ हुनितब्बं ति आहवनीयो ।
इसके अतिरिक्त, स्वाख्यात धर्म-विनय के अनुशासन के अनुसार प्रतिपन्न होने से भी, अकलङ्कित मार्ग में प्रतिपन्न होने से भी सुप्पटिपन्न हैं ।
२८. दो अन्तों को त्यागकर मध्यमा प्रतिपदा में प्रतिपन्न होने, कायिक वाचिक मानसिक धूर्तता, कुटिलता और विकृतिरूप दोषों का प्रहाण करने के उद्देश्य से प्रतिपन्न होने से उजुप्पटपन्न हैं।
२९. 'न्याय' निर्वाण को कहते हैं। उसके लिये प्रतिपन्न होने से जयप्पटिपन्न हैं । ३०. जैसे प्रतिपत्र होने से (कोई) समीचीनप्रतिपत्र ( सत्कार आदि) के योग्य होता है, वैसे प्रतिपन्न होने के कारण सामीचिपटिपन्न है ।
३१. यदिदं - ये जो चत्तारि पुरिसयुगानि - युगल (जोड़े) के अनुसार, प्रथम मार्गस्थ - फलस्थ एक जोड़ा है। इसी प्रकार चार पुरुषयुगल होते हैं।
अट्ठ पुरिसंपुग्गला - पुरुष ( पुद्गल) के अनुसार एक प्रथम मार्गस्थ, एक फलस्थ - इस विधि से आठ ही पुरुष (पुद्रल) होते हैं । यहाँ, 'पुरुष या पुद्गल' (ऐसा अर्थ समझना चाहिये क्योंकि) ये (दोनों) पद एकार्थक हैं। विनेयजनों की भिन्नता के अनुसार यह कहा गया है। एस भगवतो सावकसङ्घो – ये जो युगल के अनुसार चार पुरुषयुगल हैं, तथा पृथक् पृथक् आठ पुरुष (पुद्गल) हैं - यह भगवान् का श्रावकसङ्घ है।
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३२. आहुनेय्य आदि में, जो (कुछ) लाकर दिये जाने योग्य है, वह 'आहुन' (उपहार) है। अर्थात् दूर से भी लाकर शीलवानों को देने योग्य है। यह चार प्रत्ययों का अधिवचन है। महान् फल देने वाला होने से वह (सङ्घ) उपहार प्राप्त करने योग्य है, इसलिये आहुनेय्य है।
अथवा, दूर से भी आकर सारी सम्पत्ति भी यहाँ दे देने योग्य है, अतः आह्वनीय है । अथवा,