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विसुद्धिमग्गो
अभिभूतो परियादिण्णचित्तो अत्तव्याबाधाय पि चेतेति, परब्याबाधाय पि चेतेति, उभयब्याबाधाय पि चेतेति । चेतसिकमपि दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति । रागे पहीने नेव अत्तब्याबाधाय चेतेति, न परब्याबाधाय चेतेति, न उभयब्याबाधाय चतेति, न चेतसिकं दुक्खं दोमनस्सं पटिसंवेदेति। एवं पि खो, ब्राह्मण, सन्दिट्ठिको धम्मो होति" (अ० नि० १/ २०७) ति।
अपि च नवविधो पि लोकुत्तरधम्मो येन येन अधिगतो होति, तेन तेन परसद्धाय गन्तब्बतं हित्वा पच्चवेक्खणत्राणेन सयं दट्ठब्बो ति सन्दिट्ठिको ।
अथ वा पसत्था दिट्ठि सन्दिट्ठि, सन्दिट्ठिया जयती? ति सन्दिट्ठिको तथा हेत्थ अरियमग्गो सम्पत्ताय, अरियफलं कारणभूताय, निब्बानं विसयिभूताय, सन्दिट्ठिया किले से जयति। तस्मा यथा रथेन जयतीति रथिको, एवं नवविधोपि लोकुत्तरधम्मो सन्दिट्टिया जयती ति सन्दिट्ठको ।
अथ वा दिट्टं ति दस्सनं वुच्चति । दिट्ठमेव सन्दिट्टं, दस्सनं ति अत्थो । सन्दिट्टं अरहती ति सन्दिट्टिको । लोकुत्तरधम्मो हि भावनाभिसमयवसेन सच्छिकिरियाभिसमयवसेन च दिस्समानो येव वट्टभयं निवत्तेति । तस्मा यथा वत्थं अरहती ति वत्थिको, एवं सन्दिट्ठे अरहती ति सन्दिट्टिको ॥ (२)
२०. अत्तनो फलदानं सन्धाय नास्स कालो ति अकालो । अकालो येव अकालिको । न पञ्चाहसत्ताहादिभेदं कालं खेपेत्वा फलं देति, अत्तनो पन पवत्तिसमनन्तरमेव फलदो ति तं होत ।
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नाश करने वाले आर्य पुद्गल द्वारा स्वयं देखे जाने योग्य है, अतः सन्दिट्ठिक है। जैसा कि कहा है - " ब्राह्मण, राग से अभिभूत एवं वशीभूत चित्त अपनी पीड़ा के चलते सोचता है, दूसरे की ..., दोनों की...सोचता है, चैतसिक दुःख- दौर्मनस्य का अनुभव करता है। राग नष्ट हो जाने पर वह न तो अपनी पीड़ा के कारण सोचता है, न दूसरे...न चैतसिक दुःख - दौर्मनस्य का अनुभव करता है । इस प्रकार भी, ब्राह्मण, सान्दृष्टिक धर्म होता है। " (अ० नि० १/ २०७)
इसके अतिरिक्त, सभी नौ प्रकार के लोकोत्तर धर्म जिसे भी प्राप्त होते हैं, वह दूसरों पर श्रद्धा (विश्वास) करना छोड़, प्रत्यवेक्षण ज्ञान द्वारा स्वयं ही देख सकता है, अतः सन्दिट्ठक है । अथवा, प्रशस्त दृष्टि 'सन्दृष्टि' है। सन्दृष्टि द्वारा विजयी होता है, इसलिये सान्दृष्टिक है। और क्योंकि यहाँ आर्य-मार्ग सम्प्रयुक्त, आर्य - फल की कारणभूत, निर्वाण की विषयभूत सन्दृष्टि द्वारा क्लेशों को जीतता है, अतः जैसे कि रथ से जीतने वाला 'रथिक' होता है, वैसे ही सन्दृष्टि द्वारा जीतने से सन्दिट्ठिक है।
अथवा, 'दृष्ट' दर्शन को कहते हैं । दृष्ट ही सन्दृष्ट अर्थात् दर्शन है। सन्दृष्ट के योग्य है, अतएव ' सान्दृष्टिक' है। क्योंकि लोकोत्तरधर्म भावना के अभिसमय (स्पष्टज्ञान) तथा साक्षात्कार अभिसमय के रूप में, देखने के साथ ही (संसार) वृत्त का भय नष्ट कर देता है, अतः जैसे वस्त्र के योग्य होनेसे 'वास्त्रिक' है, वैसे ही सन्दृष्ट के योग्य होने से सन्दिट्ठिक हैं । (२)
१. " तेन दीव्यति" ( पा० सू० ४/४/२) इति पाणिनिसुत्तानुसारं वृत्तं ।
२. " तदर्हति " ( पा० सू० ५ / १/६३ ) इति पाणिनिसुत्तानुसारं वृत्तं ।