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विसुद्धिमग्गो
अत्तनो चित्तेन उपनयनं अरहती ति ओपनय्यिको । सच्छिकिरियावसेन अल्लीयनं अरहती
अत्थो ।
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अथ वा निब्बानं उपनेती ति । अरियमग्गो उपनेय्यो। सच्छिकातब्बतं उपनेतब्बो ति फलनिब्बानधम्मो उपनेय्यो । उपनेय्यो एव ओपनेय्यिको ॥ (५)
२३. पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्जूही ति । सब्बेहि पि उग्घटितआदीहि' विजूहि अत्तनि अत्तनि वेदितब्बो - "भावितो मे मग्गो, अधिगतं फलं, सच्छिकतो निरोधो" ति । न हि उपज्झायेन भावितेन मग्गेन सद्धिविहारिकस्स किलेसो पहीयन्ति। नसो तस्स फलसमापत्तिया फासु विहरति । न तेन सच्छिकतं निब्बानं सच्छिकरोति । तस्मा न एस परस्स सीसे आभरणं विय दट्ठब्बो। अत्तनो पन चित्ते येव दट्ठब्बो, अनुभवितब्बो विञ्जूही ति वुत्तं होति । बालानं पन अविसयो चेसो ॥ (६)
२४. अपि च, स्वाक्खातो अयं धम्मो । कस्मा ? सन्दिट्ठिकत्ता । सन्दिट्ठिको, अकालिकत्ता । अकालिको, एहिपस्सिकत्ता । यो च एहिपस्सिको, सो नाम ओपनेटियको होतीति ।
२५. तस्सेवं स्वाक्खाततादिभेदे धम्मगुणे अनुस्सरतो "नेव तस्मि समये रागपरियुट्ठितं चित्तं होति । न दोस....पे..... न मोहपरियुट्ठितं चित्तं होति । उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं
भावना द्वारा स्वचित्त में लाने योग्य है, अतः औपनयिक है । औपनयिक ही ओपनेय्यिक है। यह (कथन) संस्कृत लोकोत्तर धर्म (मार्ग) पर सम्पृक्त होता है। किन्तु असंस्कृत (निर्वाण ) तो स्वचित्त द्वारा लाने योग्य है, अतः ओपनेय्यिक है। तात्पर्य यह है कि साक्षात्कार द्वारा (अपने साथ) जोड़ने योग्य है।
अथवा, निर्वाण की ओर ले जाने वाला आर्यमार्ग उपनेय्य है। साक्षात्कार की ओर ले जाने में समर्थ (मार्ग - ) फल निर्वाणरूप धर्म है, जो कि उपनेय्य है। उपनेय्य ही ओपनेय्यिक है । (५) २३. पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्जूहि (विज्ञों द्वारा स्वयं सूक्ष्मतया जानने योग्य ) - सभी उद्घाटितज्ञ आदि ( द्र० पुग्गलपञ्ञत्ति, अ०, ४,४, ३) विज्ञों द्वारा स्वयं में यों जानने योग्य है- "मैंने मार्ग की भावना की, फल प्राप्त हुआ, निरोध का साक्षात्कार किया"; क्योंकि उपाध्याय द्वारा भावितमार्ग से उसके समीपवर्ती (शिष्य आदि) के क्लेश नष्ट नहीं होते, वह उसकी फलसमापत्ति द्वारा सुख से विहार नहीं करता, उसके द्वारा साक्षात्कार किये गये निर्वाण का साक्षात्कार नहीं करता । . अर्थात् यह दूसरे के सिर पर रखे आभूषणवत् दिखायी देने योग्य नहीं है, अपितु विज्ञों द्वारा स्वचित्त में ही इसे देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। बालकों (मूर्खों) का तो यह विषय ही नहीं है।
२४. इसके अतिरिक्त - यह धर्म स्वाख्यात है। क्यों? सान्दृिष्टिक होने से। सान्दृष्टिक है, कालिक होने से। अकालिक है, एहिपस्सिक होने से। जो एहिपस्सिक है, वही ओपनेय्यिक होता है।
२५. जब वह (योगी) स्वाख्यात आदि धर्म के गुणों का अनुस्मरण करता है, तब " उस १. कतमो च पुग्गलो उग्घटित ? इच्चेतस्स पञ्हस्स विस्सज्जनं पुग्गलपञ्ञत्तियं ( ६४ पि०) दट्ठब्बं ।