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विसुद्धिमग्गो
"पाटली सिम्बली जम्बू देवानं पारिच्छत्तको । कदम्बो कप्परुक्खो च सिरीसेन भवति सत्तमं ति ॥ असीति, सहस्सानि अज्झोगाळ्हो महण्णवे । अच्चुतो तावदेव चक्कवाळसिलुच्चयो ॥ परिक्खिपित्वा तं सब्बं लोकधातुमयं ठितो" ति ॥
तत्थ चन्दमण्डलं एकूनपञसयोजनं । सुरियमण्डलं पञ्ञासयोजनं । तावतिंसभवनं दससहस्सयोजनं । तथा असुरभवनं अवीचिमहानिरयो जम्बुदीपी च । अपरगोयानं सतसहस्सयोजनं । तथा पुब्बविदेहं । उत्तरकुरु अट्ठसहस्सयोजनं । एकमेको चेत्थ महादीपो पञ्चसतपञ्चसतपरित्तदीपपरिवारो । तं सब्बं पि एकं चक्कवाळं, एका लोकधातु । तदन्तरेसु लोकन्तरिकनिरया ।
एवं अनन्तानि चक्कवाळानि, अनन्ता लोकधातुयो भगवा अनन्तेन बुद्धजाणेन अवेदि, अञ्ञासि, पटिविज्झि । एवमस्स ओकासलोको पि सब्बथा विदितो । एवं पि सब्बथा विदितलोकत्ता लोकविदू ।
९. अत्तना पन गुणेहि विसिट्ठतरस्स कस्सचि अभावतो नत्थि एतस्स उत्तरो ति अनुत्तरो । तथा हेस सीलगुणेना पि सब्बलोकं अभिभवति, समाधि-पञ्ञाविमुत्ति-विमुत्तिञणदस्सनगुणेना पि। सीलगुणेना पि असमो असमसमो अप्पटिमो अप्पटिभागो, अप्पटिपुग्गलो... पे०... विमुत्तित्राणदस्सनगुणेना पि । यथाह - " न खो पनाहं समनुपस्सामि सदेवके
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पाटली, शिम्बली, जामुन, देवों का पारिछत्रक (पारिजातक) कदम्ब, कल्पवृक्ष और सातवाँ शिरीष होता है । बयासी हजार योजन महासागर में डूबा, और उतना ही ऊपर उठा हुआ उस लोकधातु को घेरकर चक्रवाल पर्वत स्थित है ॥ "
वहाँ चन्द्रमण्डल उनचास योजन ( परिमाण का) और सूर्यमण्डल पचास योजन है । त्रायस्त्रिश भवन दस हजार योजन ( तक विस्तीर्ण) है, वैसे ही असुर भवन, अवीचि महानरक और जम्बूद्वीप भी । अपरगोयान सात हजार योजन है, वैसे ही पूर्वविदेह । उत्तरकुरु आठ हजार योजन है। उनमें एक एक महाद्वीप पाँच पाँच सौ छोटे छोटे द्वीपों से घिरा हुआ है। वे सभी एक चक्रवाल, एक लोकधातु हैं। उनके बीच-बीच में लोकान्तरिक नरक हैं।
ऐसे अनन्त चक्रवालों को, अनन्त लोकधातुओं को भगवान् ने अनन्त बुद्धज्ञान से जाना, समझा, गहराई से समझा। इस प्रकार से भी उन्हें सब्बथा विदितलोकत्ता लोकविदू कहा गया
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९. इनके गुणों के विषय में इनसे विशिष्ट किसी अन्य के न होने से, इनसे बढ़कर (उत्तर) (कोई) नहीं है, अत: (ये) अनुत्तर हैं। और ये अपने शील-गुण से भी समस्त लोक को अभिभूत कर देते हैं। समाधि, प्रज्ञा, विमुक्ति, विमुक्तिज्ञानदर्शन ( नामक ) गुणों से भी । शील गुण में भी (किसी के भी ) असमान, असमानों (= अन्य बुद्ध आदि अनुत्तरों) के समान, अप्रतिसम ( = जिस का प्रतिरूप कोई न हो), अद्वितीय, प्रतिद्वन्द्विरहित हैं ... पूर्ववत्... विमुक्तिज्ञानदर्शन गुण से भी ।
१. सत्तमं ति । लिङ्गविपल्लासेन वुत्तं । सिरीसो भवति सत्तमो ति अत्थो ।