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छअनुस्पतिनिद्देसो
यंगुणमित्तिकं चेतं नामं, तेसं गुणानं पकासनत्थं इमं गाथं वदन्ति
" भगी भजी भागि विभत्तवा इति अकासि भग्गं ति गरू ति भाग्यवा ।
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भाग्यवा भग्गवा वुत्तो भगेहि च विभत्त्वा । भत्तवा वन्तगमनो भवेसु भगवा ततो ति ॥
तत्थ ‘“वण्णागमो वण्णविपरिययो" ति आदिकं निरुत्तिलक्खणं गहेत्वा सद्दनयेन वा पिसोदरादिपक्खेपलक्खणं गत्वा यस्मा लोकियलोकुत्तरसुखाभिनिब्बत्तकं दानसीलादिपारप्पत्तं भाग्यमस्स अत्थि तस्मा भाग्यवा ति वत्तब्बे भगवा ति वुच्चती ति जतब्बं। (३) यस्मा पन लोभदोसमोहविपरीतमनसिकारअहिरिकानोत्तप्पकोधूपनाहमक्खपळास
बहूहि जयेहि सुभावितत्तनो भवन्तगो सो भगवा ति वुच्चती" ति ॥ निद्देसे (खु०४ : १/१७६) वुत्तनयेनेव चेत्थ तेसं तेसं पदानं अत्थो दट्ठब्बो । (२) अयं पन अपरो नयो
जिन गुणों का सूचक ( = नैमित्तिक) यह नाम है, उन गुणों के प्रकाशन हेतु यह गाथा कही जाती है
१.
. वे गुण भग (ऐश्वर्य) वाले ( =भगी) एकान्त आदि का भजन ( = सेवन) करने वाले (= भजी), (अर्थ-धर्म-विमुक्ति रस को) पाने वाले ( = भागि), (लौकिक लोकोत्तर धर्मों को) विभक्त करने वाले (= विभत्तवा), राग आदि को भग्न ( =भग्ग) किये हुए, भाग्यवान् (= भाग्यवा), अनेक प्रकार से स्वयं को सुभावित ( = भावना में परिपक्व ) किये हुए, भव के अन्त तक पहुँचे हुए (=भवन्तग) है, अतः भगवान् कहे जाते हैं।
निद्देस (खु० ४:१/१७६) में कहे गये वचन के अनुसार यहाँ उन उन पदों का अर्थ समझना चाहिये। (२)
एक अन्य विधि इस प्रकार है
वह भाग्यवान् (=भाग्यवा), भग्न करने वाले ( =भग्गवा), भग से युक्त, विभक्त करने वाले ( = विभत्तवा), सेवन करने वाले (= भत्तवा), संसार से (तृष्णा का) वमन (त्याग) करते हुए जाते हैं, अतः भगवान् हैं।
“वर्णागम, वर्णविपर्यय" आदि पाणिनिव्याकरणसम्बद्ध निरुक्ति के लक्षण का ग्रहण कर, या शब्दनय से . " पृषोदर' (पा० सू० ६/३/१०९) आदि प्रक्षेप-लक्षण का ग्रहण कर, क्योंकि लौकिक लोकोत्तर सुख उत्पन्न करने वाले दान, शील आदि की परिपूर्णता को प्राप्त करना भाग्य है, इसलिये 'भाग्यवान्' के स्थान पर 'भगवान्' कहे जाते हैं, ऐसा समझना चाहिये। (३) क्योंकि लोभ, द्वेष, मोह, विपरीत मनस्कार, अही (पाप करने में स्वयं से लज्जित न होना)
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"वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् " ॥
इति यं कासिकावुत्तियं वुत्तं ( काशिका ६ / ३ / १०९)। २. पिसोदरादीति। “पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्" (पा० सू० ६/३ / १०९ ) ति सुत्तेन पिसोदरादिगणे
पक्खिपित्वा तं लक्खणं गहेत्वा ति ।