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छअनुस्पतिनिद्देसो
यस्मा च लोके इस्सरियधम्मयससिरिकामपयत्तेसु छसु धम्मेसु भगसद्दो पवत्तति, परमं चस्स सकचित्ते इस्सरियं, अणिमालङ्घिमादिकं वा लोकियसम्मतं सब्बाकारपरिपूरं अस्थि । तथा लोकुत्तरो धम्मो। लोकत्तयब्यापको यथाभुच्चगुणाधिगतो अति विय परिसुद्धो यसो । रूपकायदस्सनब्यावटजननयनप्पसादजननसमत्था सब्बाकारपरिपूरा सब्बङ्गपच्चङ्गसिरी । यं यं एतेन इच्छितं पत्थितं अत्तहितं परहितं वा तस्स तस्स तथेव अभिनिष्पन्नत्ता इच्छितत्थनिब्बत्तिसञ्ञितो कामो। सब्बलोकगरुभावप्पत्तिहेतुभूतो सम्मावायामसङ्घातो पयत्तो च अत्थि । तस्मा इमेहि भगेहि युत्तत्ता पि भगा अस्स सन्ती ति इमिना अत्थेन भगवा ति वुच्चति । (५)
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यस्मा पन कुलादीहि भेदेहि सब्बधम्मे, खन्धायतनधातुसच्चइन्द्रियपटिच्चसमुप्यादादीहि वा कुसलादिधम्मे, पीळ्नसङ्घतसन्तापविपरिणामट्टकेन वा दुक्खं अरियसच्चं, आयूहन-निदान-संयोग-पटिबोधट्ठेन समुदयं, निस्सरण - विवेकासङ्घत- अमतट्ठेन निरोधं, निय्यानिक - हेतु - दस्सनाधिपतेय्यट्ठेन मग्गं विभत्तवा, विभजित्वा विवरित्वा देसितवा तिवृत्तं होति, तस्मा विभत्तवा ति वत्तब्बे भगवा ति वुच्चति । (६)
यस्मा च एस दिब्ब-ब्रह्म- अरियविहारे ? काय-चित्त- उपधिविवेके सुञतप्पणि
'सम्पत्ति सूचित होती है। दोषों की भग्रता से धर्मकायसम्पत्ति । साधारणजनों से समर्थित होना, गृहस्थों और प्रव्रजितों का पास आना, पास आये लोगों के कायिक मानसिक दुःखों को दूर करने में समर्थ होना, उन आगतों को भोजन आदि देकर और धर्मोपदेश देकर उपकृत करना एवं लौकिक, लोकोत्तर सुखों में लगाने की क्षमता भी सूचित होती है । (४)
क्योंकि लोक में 'भग' शब्द ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, काम, प्रयत्न - इन छह धर्मों के अर्थ मैं प्रयुक्त होता है । (" योनिकामसिरिस्सेर धम्मुय्यामयसे भगं" - अभिधानप्पदीपिका, ३, ३ / ८४४), और इनका स्वचित्त पर परम ऐश्वर्य ( = आधिपत्य) है, अथवा अणिमा, लघिमा आदि लोक द्वारा सम्मानित सब प्रकार के (ऐश्वर्य से) परिपूर्ण है। वैसे ही, उनका लोकोत्तर धर्म है । त्रिलोकव्यापी एवं उपार्जित गुणों द्वारा प्राप्त अत्यधिक परिशुद्ध यश है । अङ्ग-प्रत्यङ्ग की शोभा सब प्रकार से परिपूर्ण, रूपकाय का दर्शन करने वालों की आँखों को सुख देने में समर्थ है। इन्होंने अपने या दूसरे के लिये जो जो चाहा उस-उस की उसी समय पूर्ति हो जाने से 'इष्ट अर्थ की पूर्ति' नामक काम वाले हैं। समस्त लोक में गौरव की उत्पत्ति के हेतुभूत सम्यग्व्यायाम नामक प्रयत्न वाले हैं। इस प्रकार, इस अर्थ में भी भगवा (भगवान्) कहे जाते हैं । (५)
और क्योंकि कुल आदि के भेद से सब धर्मों को, या स्कन्ध, आयतन, धातु, सत्य, इन्द्रिय, प्रतीत्यसमुत्पाद आदि के भेद से कुशल आदि धर्मों को; या पीड़न, संस्कृत, सन्ताप, विपरिणाम आदि के अर्थ में दुःख आर्यसत्य को आयूहन, निदान, संयोग, प्रतिबोधन के अर्थ में समुदय को; निःसरण, विवेक, असंस्कृत, अमृत के अर्थ में निरोध को; नैर्याणिक ( = बाहर निकलना ),
१. कसिणादि आरम्मणानि रूपावचरज्झानानि दिब्बविहारो । मेत्तादिज्झानानि ब्रह्मविहारो । फलसमापत्ति अरियविहारो ।
२. कामेहि विवेकट्टकायतावसेन एकीभावो कायविवेको । पठमज्झानादिना नीवरणादीहि विचित्तचित्तता चित्तविवेको । उपधिविवेको निब्बानं ।