________________
१४
विसुद्धिमग्गो
तथागतो होति तस्सा वाचाय वेय्याकरणाया " ति (म० नि० २ / ५४६) । एवं सम्मा गदत्ता पि सुगतो ति वेदितब्बो ।
८. सब्बथा पि विदितलोकत्ता पन लोकविदू । सो हि भगवा सभावतो समुदयतो निरोधतो निरोधूपायतो ति सब्बथा लोकं अवेदि अज्ञासि पटिविज्झि । यथाह - ' -" तत्थ खो, आवुसो, न जायति न जीयति न मीयति न चवति न उपपज्जति, नाहं तं गमनेन लोकस्स अन्तं जातेय्यं दद्वेयं पत्तेयं ति वदामि, न चाहं, आवुसो, अप्पत्वा व लोकस्स अन्तं दुक्खस्स अन्तकिरियं वदामि । अपि चाहं, आवुसो, इमस्मि येव ब्याममत्ते कळेंवरे ससञ्ञिम्हि समनके लोकं च पञ्ञपेमि, लोकसमुदयं च लोकनिरोधं च लोकनिरोधगामिनिं च पटिपदं । " गमनेन न पत्तब्बो लोकस्सन्तो कुदाचनं ।
न च अप्पत्वा लोकन्तं दुक्खा अत्थि पमोचनं ॥ तस्मा हवे लोकविदू सुमेधो लोकन्तगू वूसितब्रह्मचरियो । लोकस्स अन्तं समितावि जत्वा नासीसती लोकमिमं परं चा" ति ॥
(सं० नि० १ / १०३ - ५ ) अपि च तयो लोका—सङ्घारलोको, सत्तलोको, ओकासलोको ति । तत्थ “एको लोको
वचन को तथागत सत्य, तथ्य, हितकर समझते हैं, और वह दूसरों को प्रिय और ग्राह्य भी होता है, उसे बोलने का उचित समय तथागत जानते हैं" । (म० नि० २ / ५४६) । इस प्रकार सम्मा गदत्ता' पि सुगतो - ऐसा जानना चाहिये ।
44
८. सब प्रकार से लोक (संसार) को जानने के कारण लोकविदू (लोकविद्) हैं। उन भगवान् ने (१) स्वभाव से, (२) समुदय से, (३) निरोध से, (४) निरोध के उपाय (मार्ग) से - इस प्रकार सर्वथा लोक को जाना, समझा, गहराई से समझा। जैसा कि कहा गया है'आयुष्मन्! मैं यह नहीं कहता हूँ कि लोक का कोई ऐसा अन्त (= अन्तिम सीमा) है, जहाँ न कोई उत्पन्न होता है, न जीता है, न मरता है, न च्युत होता है, न (पुनः) उत्पन्न होता है; वहाँ जाकर उसे जानना, देखना, प्राप्त करना चाहिये । और आयुष्मन्, मैं यह भी नहीं कहता कि (उस) लोक का अन्त पाये विना ही दुःख का अन्त किया जा सकता है। मैं तो, आयुष्मन् ! इसी व्याम ( = चार हाथ की लम्बाई) मात्र के, संज्ञाओं और मन (विज्ञान) वाले शरीर में ही लोक को भी प्रज्ञप्त करता (= बतलाता हूँ, लोकसमुदय को भी, लोकनिरोध को भी, लोक-निरोधगामिनी प्रतिपदा को भी ।"
"गमन द्वारा लोक के अन्त को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता, और लोक का अन्त पाये विना दुःख से छुटकारा नहीं है ॥
अतः लोकविद्, मेधावी, लोक के अन्त (= निर्वाण ) का ज्ञाता, ब्रह्मचर्य पूर्ण करने वाला, शान्त साधक लोक का अन्त जानकर इस लोक या परलोक की आशा नहीं करता।"
और भी लोक तीन हैं- (१) संस्कारलोक, (२) सत्त्वलोक, (३) अवकाशलोक । इनमें
१. आतेय्यं ति जानितब्बं । "जातायं" ति वा पाठो। जाता अयं, निब्बानत्थिको ति अधिप्पायो । २. 'गद्' धातु ( व्यक्त= स्पष्ट वाणी) कहने, बोलने के अर्थ में प्रयुक्त होती है।